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________________ Ind 'सत्यार्थचिन्तामणिः १९१ स्वज्ञानान्मिथ्याज्ञानस्य सहजस्याहार्यस्य चानेकप्रकारस्य प्रतिप्रमेयं देशादिभेदादुन्द्रतः प्रक्षया सद्धेतुकदोषनिवृत्तेः प्रवृत्त्यभावादनागतस्य जन्मनो निरोधादुपा राजन्मनश्च प्राइस धर्माधर्मयोः फलभोगेन प्रक्षयणात्, सकलदुःखनिवृचिरात्यन्तिकी मुक्तिः, दुःखजन्मप्रवृतिदोषमिथ्याज्ञानानामुत्तरोचरापाये तदनन्तरापायानिःश्रेयसमिति कैश्रिद्वचनात् । केवल ज्ञानको मोक्षका मार्ग माननेवाले कतिपय प्रतिवादियोंका मन्तव्य पृथक् पृथक् है । उनमें नैयायिक तत्रज्ञान से मुक्ति होनेकी प्रकियाका निरूपण ऐसा करते हैं कि कारण विशेषोंसे प्रसन्न हुए तत्रज्ञानके द्वारा मिथ्याज्ञानका प्रक्षय हो जाता है। मिथ्याज्ञान मूलभेदसे दो प्रकारका है । एक सहज, दूसरा आदारी तिच मनुष्यों के अपने आप मिय्या संस्कारवश उत्पन्न हो जाता है, वह जैनियोंके अगृहीत मिध्यादृष्टि जीव ज्ञानसमान सहजमिध्याज्ञान है । और दूसरोंके उपदेशसे या स्वयं खोटे अध्यवसायसे इच्छापूर्वक चलाकर विपरीतज्ञान कर लिया जाता है वह आर्य है । आर्यका लक्षण नैयायिकोंने ऐसा माना है कि " बाघकालीनोत्पन्नेच्छाजन्यं ज्ञानमाहार्यम् " किसी विषय बाधकज्ञानके रहते हुए भी चलाकर इच्छा उत्पन्नकर आमहसे विपरीत ज्ञान पैदा करलेना आहार्य मिथ्याज्ञान है । इन दोनों मिथ्याज्ञानोंके अनेक भेद हैं । तत्रज्ञान उत्पन्न होने के प्रथम प्रत्येक प्रमेय देश, काल, अवस्था, सम्बन्धकी अपेक्षासे उत्पन्न हो रहे मिथ्याज्ञानोंका तत्त्वज्ञान द्वारा I I 1 या श्रय हो जानेसे मिथ्याज्ञानजन्य दोषोंकी निवृत्ति हो जाती है और रागद्वेष स्वरूप दोषों की निवृत्ति हो जानेपर धर्म अधर्म प्रवृत्तियोंका अभाव हो जाता है। क्योंकि उन प्रवृत्तियों के कारण दोष थे। जब दोषोंका ही अभाव हो गया, तब प्रवृत्तिरूप कार्य भी नहीं हो सकते हैं । कारण के न होनेपर कार्य भी नहीं होता है । और प्रवृतिके अभावसे उसके कार्यजन्मका भी अभाव हो जाता है । यहां भविष्य में होनेवाले जन्मोंका अभाव तो प्रवृचिके न होनेसे हो गया और ग्रहण किये गये मनुष्य जन्मका तथा वर्तमानमें फल देनेवाले प्रवृतिस्त्ररूप धर्मे अधर्मका फल देनारूप भोग करके नाश हो जाता है । जब जन्म लेना तथा पुण्य पापका ही नाश होगया, तब उनके कार्य संपूर्ण दुःखोंकी मी निवृत्ति होगयी, और उसी अन्तको अतिक्रमण करनेवाली अनन्तकाल तक के लिये हुयी दुःखनिवृत्तिको ही मुक्ति कहते हैं । नैयायिकों के गौतम ऋषिका सूत्र है कि "दुःख, जन्म, प्रवृत्ति, दोष और मिथ्याज्ञान इनमें पूर्व कार्य हैं और उत्तर में कहे हुए कारण हैं। तत्त्वज्ञान उत्पन्न हो जानेपर मिथ्याज्ञानोंका जब नाश होगया तो आगे आगेवाले कारणोंका अभाव होजानेपर उनके अव्यवहित पूर्ववर्ती कार्योंका भी अभाव होजाता है । अन्तमें दुःखोंके निश्र्च हो जानेसे मोक्ष हो जाती है । इस प्रकार फलोपभोगको सदकारी कारण पकड़ता हुआ सम्यग्ज्ञान ( तत्रज्ञान ) ही मोक्षका कारण है, ऐसा किन्हीं नैयायिकों के द्वारा कहा जाता है ।
SR No.090495
Book TitleTattvarthshlokavartikalankar Part 1
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherVardhaman Parshwanath Shastri
Publication Year1949
Total Pages642
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size19 MB
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