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________________ तत्वार्थचिंतामणिः इससे सिद्ध होता है कि गुरुओंकी प्रसन्नता से व्युत्पत्तिलाभ करनेवाले विद्वानोंको वे गुरु ही पूज्य हैं क्योंकि दूसरोंसे किये हुए उपकारको साधु सज्जन भूलते नहीं है। फिर यहां शंका उत्पन्न होती है । १८ ननु यथा गुरूपदेशः शास्त्रसिद्धेर्निबन्धनं तथाप्सानुध्यानकृतनास्तिकता परिहारशिष्टाचारपरिपालन मंगलधर्मविशेषाश्च तत्सहकारित्वाविशेषादिति चेत् । 3 कि जिस तरह से गुरुओंका उपदेश शास्त्रकी सिद्धिका कारण है, उसी प्रकार आप्तके ध्यान से किये गये नास्तिकतादोषका निराकारण शिलोंके आचाररूप गुणका पालन, सुख करनेचाला मंगल और प्रतिभाका उपयोगी पुण्यविशेष भी तो तत्वार्थश्लोकार्थक बनानमें कारण हो सकते हैं। क्योंकि जैसा सहकारी कारण गुरुका उपदेश है, वैसेही उक्त चारों भी सहकारी कारण हैं । उपादान कारणको सहायता पहुंचाकर या साथ कार्य करनेरूप सहकारीपनकी अपेक्षासे इन कोई अंतर नहीं हैं । यदि ऐसा कहोगे तो--- सत्यम् | केवलमाप्तानुध्यानकृता एव ते तस्य सहकारिण इति नियमो निषिध्यते, साधनान्तरकृतानामपि तेषां तत्सहकारितोषपतेः कदाचित्तदभावेऽपि पूर्वोपाशधर्मं विशेषेम्यस्त निष्पत्तेच, परापरगुरूपदेशस्तु नैवमनियतः, शास्त्रकरणे तस्यावश्यमपेक्षणीयत्वादन्यथा तदघटनात् । आचार्य कहते हैं कि ठीक है । आधा अंगीकार करना, या जबतक में उत्तर नहीं देता है, तबतक ठीक है, यह " सत्यं " अव्ययका अर्थ लिया गया है। I सुनिये | गुरूपदेशके समान नास्तिकता परिहार आदि भी उस शास्त्र के सहकारी अवश्य हैं । किंतु वे चारों सहकारी कारण आप्तके ध्यानसे ही किये जाते हैं। जैसाकि पहिले तुमने कहा था इस नियमका निषेध है । आप्त के ध्यान और नास्तिकतापरिहार आदिके कार्यकारण मावने अन्वयव्यतिरेक नहीं घटते हैं। देवपूजन, स्वाध्याय, तपस्या आदि अन्य कारणोंसे भी उत्पन्न होकर वे चारों उस ग्रंथ के सहायक बन सकते हैं और कभी कभी उस आसके ध्यान बिना भी पूर्वजन्म में उपार्जित विलक्षण पुण्योंसे भी वे चारों गुण पैदा हो जाते हैं । किंतु पर अपर गुरु का उपदेश तो ऐसा नियमके विना नहीं है । अर्थात् इस पूर्वोक्त प्रकार अन्य व्यभिचार और व्यतिरेक व्यभिचार दोषवाला नहीं है । तभी तो शास्त्र बनाने में उस गुरुओंके उपदेशकी अवश्य अपेक्षा है। उसके बिना दूसरे प्रकारसे वे शास्त्र बन नहीं सकते हैं । 1 ` ततः सूक्तं परापरगुरुप्रवाहस्याध्यानं तचार्थश्लोकवार्त्तिकप्रवचनात्पूर्व श्रेयस्तत्सि द्विनिवन्धत्वादिति प्रधानप्रयोजनापेक्षया नान्यथा, मंगलकरणादेरप्यनिवारणात् । पात्रदानादिवत् ।
SR No.090495
Book TitleTattvarthshlokavartikalankar Part 1
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherVardhaman Parshwanath Shastri
Publication Year1949
Total Pages642
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size19 MB
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