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________________ तत्त्वार्थचिंतामणिः आचाराङ्ग आदि चारह अंग पौगलिकशब्दस्वरूप द्रव्यश्रुत | वह तो परमगुरुका उपदेश स्वरूप है ही और उस द्वादशांगका जो अर्थज्ञान है, वह भावश्रुतज्ञान है । ये दोनों भी शास्त्र और शास्त्रज्ञान गणधरदेवोंको भगवान् अर्हत्परमेष्ठी सर्वज्ञके सर्वजीवों को समझाने की शक्ति रखनेवाले वातिशय वचनों के प्रसादसे तथा अपने अपने मतिज्ञानावरण, श्रुतज्ञानावरण और वीर्यान्तराय कम विशिष्ट अतिशयशाली क्षयोपशम से पैदा हो जाते हैं, तो शास्त्र और शास्त्रका ज्ञान गुरुओं के उपदेशके अधीन क्यों नहीं होगा ? अर्थात् होगा ही । ܝܪ क्षुरादिमतिपूर्वकं श्रुतं तनेह प्रस्तुतं श्रोत्रमतिपूर्वकस्य भावश्रुतस्य प्रस्तुत - स्वात्तस्य चातोपदेशायत्तताप्रतिष्ठानात्परा पराप्तप्रवाह निबन्धन एवं परापरशास्त्रप्रवाहस्तनि बन्धनश्च सम्यगवबोधः स्वयमभिमतशास्त्रकरणलक्षणफलसिद्धेरभ्युपाय इति तत्कामैराप्तस्सकलोच्या ध्यातव्य एव । सम्भवतः थों कोई दृष्टिकोण रखें कि आंखोसे घट, पटको देखकर उनके बनानेवाले आदि का और जिव्हासे रसको चखकर नीबू, अंगूर आदिका भी अर्थ अर्थान्तर का ज्ञान होना रूप श्रुतज्ञान हो जाता है तथा आहार, भय, आदि संज्ञाओंका विना सिखाये संचेतन हो जाता है | अतः गुरुके बिना भी तो श्रुतज्ञान हो गया । आचार्य कहते हैं कि ऐसी आशंका न करना, क्योंकि यहां प्रकरण चाक्षुष, रासन आदि मतिज्ञानोंसे होनेवाले श्रुतज्ञानका कार्यकारण भाव विचारणीय नहीं है, किन्तु श्रवणेंद्रियजन्य मतिज्ञानके पश्चात् होनेवाले वाच्यज्ञान रूप भाव श्रुतज्ञानका कारण प्रस्ताधर्मे विचार प्राप्त है । ग्रन्थ लिखने में वही श्रुतज्ञान उपयोगी हो सकता है । और वह श्रुतज्ञान आप्स के उपदेशके ही अधीन प्रतिष्ठित है । इस कारण से सत्यवक्ता परगुरु और अपर गुरुओंके प्रवाहको कारण मानकर ही धारारूपसे उन व्यक्तियोंके द्वारा पर अपर शास्त्रोंका प्रवाह चला आ रहा है । और तिस कारण शास्त्रोंकी चली आयी हुयी परिपाटीसे हम लोगोंको अच्छी व्युत्पत्ति प्राप्त है तथा वह व्युत्पत्ति अपने अभीष्ट शास्त्रोंको बनाने स्वरूप फलकी सिद्धिका बढिया उपाय है । इस कारण उस शास्त्र बनानेकी इच्छा रखनेवाले विद्वानोंको सर्वज्ञ देवसे लेकर अब आये हुए यथार्थ बक्ता सभी श्री गुरुओका ध्यान करना ही चाहिये । तदुक्तम् | उसीको अन्यत्र भी कहा है कि अभिमतफलसिद्धेरम्युपायः सुबोधः । प्रभवति स च शास्त्रानस्य चोत्पत्तिराप्तात् । इति भवति स पूज्यस्तत्प्रसादात्प्रबुद्धैर्न हि कृतमुपकारं साधवो विस्मरन्ति । प्रत्येक अभीष्टफल की सिद्धिका अच्छा उपाय सम्यग्ज्ञान है । वह सच्चा ज्ञान तो शास्त्रसे पैदा होता है और उस शास्त्रकी उत्पत्ति जिनेंद्र देव तथा गणधर देव आदि यथार्थ वक्ता मुरुओं से है ।
SR No.090495
Book TitleTattvarthshlokavartikalankar Part 1
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherVardhaman Parshwanath Shastri
Publication Year1949
Total Pages642
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size19 MB
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