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तत्यार्थचितामणिः
" शास्त्रसिद्धिनिबन्धनम् " यहाँ सिद्धिका अर्थ शास्त्रकी उत्पत्ति और ग्रन्थकारके शास्त्र रूपी वचनोंकी कारण हो रही जुन प्रतिपादक ग्रन्थकारकी प्रतिपाद्य पदार्थों के निर्णय करानेवाली ज्ञप्ति है । इन दोनों कार्योंका नियमरूपसे कारण परगुरुओं और अपरगुरुओंका प्रवाह ही है । उक्त शंकाका यहीं साक्षात् कार्यकारण भावरूपसे समाधान बुद्धिमानोंको सन्तोषपूर्वक धैर्य उत्पन्न करनेवाला है । भावार्थ- गुरुओके ध्यानसे ही यह शास्त्र बना है और इसमें लिखे हुए प्रमेयका निर्णय भी हमें गुरुओं के प्रसादसे ही प्राप्त हुआ है । स्वामीजीका यह उत्तर गुरुपरिपाटीसे आमनायके ज्ञातापको सिद्ध करता है । और यह ग्रन्थ स्वरुचिसे विरचित है, इस दोषका भी परिहार हो जाता है ।
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अब ग्रंथकार के समाधानपर किसीकी शंका है,
सम्यग्ध एव वक्तुः शाखोत्पत्तिर्ज्ञाप्तिनिमित्तम् ।
“प्रतिभाकारणं तस्य 11 इस नियम की उत्पत्ति और शास्त्र है वाचक जिसका ऐसे प्रतिपादकके अर्थनिर्णयका कारण तो अन्धकारका अच्छा प्रबोध (व्युत्पन्नता) ही है । गुरुओंका ध्यान इन दोनों कारण नहीं है ।
इति चेन्न । तस्य गुरूपदेशा यत्तत्वात् ।
आचार्य कहते हैं कि यह कहना तो ठीक नहीं है । क्योंकि अनेक ग्रन्थसंस्कारोंसे भावना किया गया व्युत्पचिलाभ तो गुरुओं के उपदेशके ही अधीन है । अतः गुरुओंका ध्यान ही निदान हुआ। पुनः शंकाकार अपनी शंकाको दृढ करता है :
श्रुतज्ञानावरणक्षयोपशमाद्गुरूपदेशस्यापायेऽपि श्रुतज्ञानस्योत्पत्तेर्न तत्तदायत्तम् ।
गुरुओं के उपदेशके न होनेपर भी श्रुतज्ञानके आवरण हो रहे कर्मों का क्षयोपशम हो जानेसे श्रुतज्ञानकी उत्पत्ति हो जाती है। इससे सिद्ध हुआ कि शास्त्रकी उत्पत्ति और उसका ज्ञान गुरूपदेशके अधीन नहीं हैं। क्योंकि व्यतिरेक व्यभिचार दोष है ।
इति चेन्न । द्रव्यभावश्रुतस्याप्तोपदेशाविरहे कस्यचिदभावात् ।
आचार्य कहते हैं कि ऐसा तो नहीं हो सकता है ।
क्योंकि यथार्थ वक्ता के उपदेशके बिना शब्दरूपी द्रव्यशास्त्र और ज्ञानरूपी भावशास्त्र किसीको भी प्राप्त नहीं होते हैं । " गुरुविन ज्ञान नहीं" ऐसी लोकप्रसिद्धि भी है ।
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द्रव्यश्रुतं हि द्वादशाङ्गं वचनात्मकमाप्तोपदेशरूपमेव तदर्थज्ञानं तु भावतं, तदुभयमपि गणधर देवानां भगवद हैत्सर्वज्ञवचनातिशयप्रसादात्वमतिश्रुतज्ञानावरणवीर्यान्तरीयश्योपशमातिशयाच्चोत्पद्यमानं कथमाप्तायचं न भवेत् ।