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________________ तत्त्वार्थचिंतामणिः .... ... . .. . . . . . . . .. ..... . आचार्य कहते हैं कि ग्रन्थकारके नास्तिकता दोषके दूर करनेका और प्रशंसा प्राप्त करनेका वह उपाय भी प्रशस्त नहीं है । अतः वह तीसरोंका उत्तर भी निस्सार है ! जब कि श्रेयोमार्ग समर्थनादेव वक्तुर्नास्तिकतापरिहारघटनात् तदभावे सत्यपि शास्त्रारम्भे परमात्मानुध्यानवचने तदनुपपत्ते । वक्ता ग्रन्थकारने आदि सूत्रमें ही कहे गये मोक्षमार्गका वार्तिक और भाष्य द्वारा समर्थन किया है । इसीसे उनका नास्तिकपन दोष दूर हुआ घटित हो जाता है। उस यदि मोक्षमार्गका व्याप्ति द्वारा, हेतु दृष्टान्तोंसे समर्थन न करते और शास्त्रके आदिमें परमात्माके वढिया ध्यान करनेका वचन कह भी देते तो भी वह नास्तिकताका परिहार नहीं हो सकता था । क्योंकि कई मनुष्य "विषकुम्भ पयोमुख" के स्पायानुसार लोक रिझाने के लिये कतिपय दिखाऊ काम कर देते हैं। पश्चात उनकी कलई खुल जाती है । अब चौथे कोई महाशय उक्त शंकाका उत्तर इस प्रकार देते हैं कि"शिष्टाचारपरिपालनसाधनत्वासदनुध्यानवचनं तसिद्धिनिबन्धनमिति केचित्"। "गुरजन नुसन्ध शिष्याः । ६६ बायसे गुरुपरिपाटीके अनुसार अनिन्दित चरित्रवाले शिष्ट-सज्जनोंको अपने गुरुओंका पुनः पुनः ध्यान करना और उसका अन्धकी आदिमें उल्लेख कर कथन करना अपने कर्तव्यका परिपालन है। इस कारण गुरुओंका ध्यान उस शास्त्रकी सिद्धिका कारण | गुरुनाफा 15 ध्यान करनस हा शक जाचारका पारपालन हो सकता है । एसा कोई कहते हैं । ग्रन्थकार कहते हैं कि तदपि तादृशमेव । खाध्यायादेरेव सकलाशिष्टाचारपरिपालनसाधनत्वनिर्णयात् । वह कहना भी तैसा ही है अर्थात् यह मी कार्यकारणभाव पूर्वोत्तवादियोंके समान अन्वयव्यतिरेकको लिये हुए नहीं है । क्योंकि स्वाध्याय, देवपूजा, सामायिक आदि ही सम्पूर्ण सुशिक्षा प्राप्त सज्जनोंके आचारका पूर्ण रीतिसे पालन करानेवाले साधन निीत किये गये हैं। केवल गुरुओंके ध्यानसे तो शिष्टाचार प्रगट नहीं होता है। क्योंकि अनेक चोर, मायाचारी (दगाबाज), वेश्या, शिकारी लोग भी सम्मानार्थ अपने गुरुओं (उस्तादों) का ध्यान किया करते हैं। __ अब पूर्वोक्त शंकाके चारों उत्तरों में अस्वरस (असंतोष) बतलाकर स्वामीजी महाराज स्वयं उक्त शंकाका सिद्धान्तरूपसे समाधान करते हैं। • सतः शास्त्रस्योत्पत्तिहेतुत्वाचदर्थनिर्णयसाधनत्याच परायरगुरुप्रवाहस्तत्सिद्धिनिनघनमिति धीमद्भुतिकरम्.
SR No.090495
Book TitleTattvarthshlokavartikalankar Part 1
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherVardhaman Parshwanath Shastri
Publication Year1949
Total Pages642
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size19 MB
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