SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 153
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ૨૬ सत्त्वाचिन्तामप्रिः की अपेक्षा करोगे तो पूर्ण रस्तत्रयही ज्ञानावरण आदि द्रव्यकर्म, या अज्ञान, क्रोध, राग आदि मात्र कर्म, और शरीर, इन्द्रिय, आदि नोकर्मस्वरूप संसारके क्षयका कारण है । यह सिद्धान्तवचन न बन सकेगा | कारणले कार्य होनाही चाहिये। कार्यकारणभाव कोई बच्चों का खेल नहीं है, चाहे जहां कार्य कर किया और कहीं कार्य न होसका । इस प्रकार किसी एक नैयायिक मतके अनुसार चलनेवाले वादीका कुचोद्य है । सोऽपि न विपश्चित् यस्मात् - ग्रन्थकार कहते हैं कि वह शंकाकार भी विचारशाली पण्डित नहीं है। जिस कारण से कितस्य दर्शनशुद्धयादिभावतोपात्तमूर्तिना । पुण्यतीर्थंकरस्येन नान्मा संश्रियः ॥ ५० ॥ स्थितस्य च चिरं स्वायुर्विशेषवशवर्तिनः । श्रेयोमार्गोपदेशित्वं कथंचिन्न विरुध्यते ॥ ५९ ॥ उस जिनेन्द्रदेवने पूर्वजन्म में या इस जन्म दर्शनविशुद्धि आदि सोलह कारण भावनाओंके भावनेसे अत्यंत पुण्यशालिनी पौलिक नामकर्मकी तीर्थकर प्रकृतिका बन्ध किया है तथा उस तीर्थंकरप्रकृति के साथ नियमरूपसे होनेवाली अनेक पुण्यप्रकृतियोंका ग्रहण किया है । उन पुण्यकृतियों के उदय आनेपर सम्पादित हुई समवसरण आदि बहिरंगलक्ष्मीको प्राप्त करनेवाले जिनेंद्रदेव उत्कृष्टपसे कुछ अन्तर्मुहुत अधिक पौनेनौ वर्ष कमती एक फोटी पूर्ववर्ष और अधन्यपनेसे कतिपय अन्तर्मुहूर्त अपने विशेष आयुष्यकर्मके अधीन होकर वर्ताव करनेवाले भगवान् बहुत देर तक या बहुत वर्षोंतक संसारमें ठहरते हैं। यों चार अवातिया कर्मों के अधीन संसार में स्थित रहनेवाले अनन्तचतुष्टयधारी भगवानके तीर्थंकर प्रकृतिके उदय होनेपर मोक्षमार्गका उपदेश देनापन किसी भी तरहसे विरुद्ध नहीं हैं । तस्य निःशेषतच्चार्थवेदिनः समुद्भूतरत्नत्रयस्यापि शरीरित्वेनावस्थानं स्वायुर्विशेषवशवर्तित्वात् न हि तदायुरपवर्तनीयं येनोपक्रमवशात् क्षीयेत, तदक्षये च तदविनाभावि - नामादिकर्मत्रयोदयोऽपि तस्यावतिष्ठते, तसः स्थितस्य भगवतः श्रेयो मार्गोपदेशित्वं कथमपि न विरुध्यते । सम्पूर्ण तत्त्वार्थके जाननेवाले उस प्रसिद्ध जिनेन्द्र भगवान् के रत्नत्रय भले ही प्रगट हो गये हैं फिर भी अपनी विशेष आयुके अधीन होनेसे जिनेन्द्र देवका उपदेशके उपयोगी शरीरसे - साहित
SR No.090495
Book TitleTattvarthshlokavartikalankar Part 1
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherVardhaman Parshwanath Shastri
Publication Year1949
Total Pages642
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size19 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy