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तत्त्वार्थचिन्तामणिः
विवक्षापूर्वक देख्ने गये हैं । वे जागृतके वचन उसी प्रकारके देशान्तर कालान्तर आदिमें होनेवाले स्तोता, व्याख्याताओंके उन वचनोंको भी उस इच्छा पूर्वक सिद्ध कर सकते हैं किन्तु उनसे सर्वथा भिन्न होरहे नितान्त सोते हुए, मूच्छित पागल, अपस्मारी मनुष्योंके वचनोंको इच्छापूर्वक सिद्ध नहीं कर सकते हैं।
तथा प्रतिपनी च न सुगतस्य विवक्षापूर्विका वाग्वृत्तिः साक्षात्परम्परया वा शुद्धस्य विवक्षापायादन्यथातिप्रसंगात् ।
यदि इस प्रकार हमारे समझानेसे आप सोते हुए पुरुषों के वचनोंको इच्छाके विना भी उत्पन्न हुए स्वीकार करते हैं तो सुगतके वचनोंकी प्रवृत्ति भी न तो साक्षात् इच्छापूर्वक हुयी है और न पूर्वकालको इच्छारे परम्परा इच्छापूर्वक सुयी है ३६ करना पड़ेगा। आप यह मी तो समझिये कि शुद्ध बुद्ध भगवान्के बोलनेकी संकल्प विकल्परूप इच्छाएं कैसे उत्पन्न हो सकती हैं !। शुद्ध आत्मामे भी इच्छा मानी जावेगी तो मुक्तजीवके और आकाशके भी इच्छा होनेका प्रसंग आवेगा । जो कि आपको इष्ट नहीं है । यह अतिप्रसंग हुआ।
सान्निध्यमात्रतस्तस्य चिन्तारलोपमस्य चेत् । कुट्यादिभ्योपि वाचः स्युर्विनेयजनसम्मताः ॥ ९२ ।।
बौद्ध कहते हैं कि “ सुगतके वचन इच्छापूर्वक नहीं हैं, सुगतके केवल निकट रहनेसे ही बचन अपने आप बुल जाते हैं । जैसे कि चिंतामणि रत्नके समीप रहने मात्रसे रनकी इच्छा न होनेपर उसके सन्निघानमात्रसे मनुष्यको अभीष्ट वस्तुएं प्राप्त हो जाती है " । आचार्य कहते हैं कि यदि बौद्ध, ऐसा मानेंगे तो सुगतके पास रहनेसे झोंपड़ी, मिति, स्तम्भ आदिसे मी विनययुक्त शिष्यजनोंके उपयोगी सम्मानित वचन निकलने चाहिये ।
सत्यं न सुगतस्य वाचो विवक्षापूर्विकास्तत्सभिधानमात्रात् कुट्यादिभ्योऽपि यथातियत्तुरभिप्राय सदुद्भुतेश्चिन्तारनोपमत्वात्सुगतस्य, तदुक्तम् " चिन्तारत्नोपमानो जगति विजयते विश्वरूपोऽप्यरूपः" इति केचित् ।
इस कारिका भाष्य यों है कि सुगतके वचन, बोलनेकी इच्छापूर्वक नहीं है यह ठीक है। उस सुगत के विद्यमान रहने मात्रसे समझनेवाले शिष्यजनोंके अभिप्रायके अनुसार कुटी, मिति आदिसे भी वे वचन निकल पडते हैं। क्या हुआ ? क्योंकि सुगत भगवान् चिन्तामणि रत्नके सदृश है। चिंतामणि रन मांगनेवालोंके अभिप्रायानुसार केवल अपनी विद्यमानतासे ही दिमा इच्छाके छप्पर से भी अभीष्ट पदार्थों को निकाल देता है। वही हमारे प्रथामें लिखा है कि "वह बुद्ध