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________________ तत्त्वार्थमितामणिः चिंतामणि रलके समान होता हुआ जगतमें जयवंत है । सम्पूर्ण अनेक रूप होनेपर भी स्वयं रूपरहित है अर्थात् स्वयं इच्छारहित है किंतु संसारवर्ती प्राणियोंको उनकी इच्छानुसार शुभ फल देनेबाला है। ऐसा कोई बुढ्ढे बौद्ध कहते हैं । ते कथमीश्वरस्यापि सन्निधानाजगदुद्भवतीति प्रतिषेछ समर्थाः, सुगतेश्वरयोरनुषकारकत्यादिना सर्वथा विशेषाभावात् तथाहि वे बौद्ध " ईश्वरके भी निकटमै विद्यमान रहने मात्रसे जगत् उत्पन्न हो जाता है।" इस प्रकार नैयायिकोंके सिद्धांतका खण्डन करनेके लिये कैस समर्थ हो सकते हैं ? बताओ सुगतके उदासीन रूपसे विद्यमान होनेपर उपदेश हो जाता है यह अन्वय ईश्वरके होनेपर जगत् उत्पन्न हो जाता है यहां भी विद्यमान है । सुगतका जगत्के प्राणियोंके साथ उपकृत-उपकारक मात्र नहीं है । वैसा ही नित्य कूटस्थ ईश्वरका भी जगतके साथ कोई उपकार्य-उपकारक भाव नहीं है क्योंकि प्राणियोंकी तरफसे आये हुए उपकारको सुगतसे भेद माननेपर या सुगतकी तरफसे गये हुए पाणियोंके ऊपर उपकारका भेद माननेपर अनवस्था दोष आता है । स्वस्वामि सम्बन्धकी विवक्षा भिन्न उपकारोंकी आकांक्षा बढ़ती जावे । और अभेद माननेपर सभी प्राणी सुगतके कार्य हुए जाते हैं । यही बात ईश्वरमै भी लागू होती है । अतः उपकारक न होकर बिना इच्छाके ही ईश्वर जगत्को बना देवेगा । यह मान लो, तथा सुगतके द्वारा उपदेशको देने में और ईश्वरके द्वारा जगत्की उत्पत्ति करनेमें आपके मंतव्यानुसार सभी प्रकारोंसे कोई अन्तर नहीं है। इसी बातको मसिद्ध कर दिखलाते हैं । सुनिये, किमेवमीश्वरस्यापि सांनिध्याज्जगदुद्भवत् । निषिध्यते तदा चैव प्राणिनां भोगभूतये ॥ ९३ ॥ कण्ठ, ताल, व्यापार और इच्छाके बिना ही केवल सुगतकी निकटतामात्रसे ही वचन प्रवृत्ति मानोगे तब तो इसी प्रकार ईश्वरकी समीपतासे जगत् उत्पन्न हुआ क्यों न माना जावे ? देखिये 1 संसारवर्ती प्राणियों के पुण्य, पाप बिना फल दिये हुए नष्ट हो नहीं सकते हैं और पुण्य पापके नाश किये विना मोक्ष नहीं हो सकती है इस कारण भोग भुगवाने के लिये ईश्वर उस समय प्राणियोंके शरीर इंद्रियां, स्वामीपन, दरिद्रता आदिको बनाता है । नित्य ज्यापक ईश्वरके होनेपर कार्यसमुदाय होता रहता है इस अन्ययसे प्रसिद्ध होरहे ईश्वरका फिर आप निषेध क्यों करते हैं ? आपने सुगतको चिन्तामणि रत्नकी उपमा दी है किंतु ईश्वरवादियोंने कार्यकारणभावकी कुछ रक्षा करते हुए ये दृष्टांत दिये हैं कि जैसे हजारों गज लम्बे तंतुओंको एक चावल बरावर भकडी उत्पन्न कर देती है या एक रुपयाभरकी चंद्रकांवमणि चंद्रोदय होनेपर हजारों मन पानी निकाल
SR No.090495
Book TitleTattvarthshlokavartikalankar Part 1
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherVardhaman Parshwanath Shastri
Publication Year1949
Total Pages642
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size19 MB
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