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सस्वाचिन्तामणिः चित्रायद्वैतवादे च दूरे सन्मार्गदेशना ।
प्रत्यक्षादिविरोधश्च भेदस्यैव प्रसिद्धितः ॥ ९८ ॥
चित्र विचित्र आकारवाले अकेले ज्ञानोंको ही माननेवाले चित्राद्वैतवादी हैं । एवं ग्राह्य, ग्राहक, कार्य, कारण आदि भावोंको रखते हुए क्षणिक ज्ञानोंको माननेवाले विशिष्टाद्वैतवादी हैं । तथा ग्राह्यग्राहकमाव आदिसे रहित होकर शुद्ध ज्ञानका ही प्रकाश माननेवाले. शुद्ध संवेदनाद्वैतवादी हैं । ज्ञान, शेय आदि सबका लोप करनेवाले शून्यवादी हैं। इन चित्र आदिकके अद्वैतवादमै श्रेष्ठ मार्गका उपदेश देना तो लाखों कोस दूर है क्योंकि अद्वैतवादमे कौन उपदेशक है और कौन उपदेश, सुनने वाला है ! क्या शब्द है इत्यादि व्यवस्था नहीं बनती है। और प्रत्यक्ष, अनुमान आदि प्रभागोंसे घट, पट, देवदत्त, जिनदत्त, इहलोक, परलोक, पुण्य, पाप, बंथ, मोक्ष आदि अनेक पदार्थ जब भेद रूपसे ही लोकमें प्रसिद्ध होकर प्रतीत होरहे हैं तब आपके अद्वैतवादका प्रत्यक्ष आदि प्रमाणोंसे ही विरोध आता है । भेदकी जगत्पसिद्ध प्रतीति होना प्रामाणिक है।
परमार्थतश्चित्राद्वैतं तावन्न संभवत्येष चित्रस्याद्वैतच्चविरोधात लदहिरर्थस्याप्य न्यथा नानकस्वसिद्धेः।
वास्तवमें विचारा जावे तो सबसे पहिले चित्रका अद्वैत ही नहीं बन सकता है असम्भव है। विधवाका विवाह होना जैसे असंगत है । उसी प्रकार नाना आकारके पदार्थाका एक अद्वैत नहीं होसकता है । जो नाना है वह अद्वैत नहीं, अद्वैतफा अनेकपनसे और चित्रपनेका अद्वैत होनेसे विरोध है । उसीके समान बहिरंग घट, पट, सह्य, विन्ध्य आदि भी द्वैतपदार्थ भिन्न भिन्न हैं। यदि ऐसा न मानकर दूसरे प्रकारसे मानोगे तो अनेक पदार्थ एकपनरूप सिद्ध होजायेंगे, अर्थात् स्वतन्त्र सत्तावाले एक एक होकर जीव, पुद्गल आदि अनेक पदार्थ है, जोकि प्रथमसे ही प्रसिद्ध हैं।
स्पान्मतं चित्राकाराप्'का बुद्धि चित्रविलक्षणत्वात् । शक्मविवेचनं हि पार्स चित्रमशपविवेचना स्वबुद्धीलाथाकारा इति । तदसत् ।
चित्राद्वैतवानियोंका यह भी मन्तव्य होसकता है कि अनेक आकारोंको धारण करनेवाली चित्रबुद्धि भी एक ही है क्योंकि बुद्धि के भिन्न भिन्न आकार तो चित्रपट, इन्द्रधनुष्य, तितली आदिके बहिरंग विचित्र आकारोंसे विलक्षण है । चित्रपट आदिके बहिरंग आकार नियमसे पृथक पृथक् किये जा सकते हैं किन्तु बुद्धिके अपने नील, पीत आदि आकार न्यारे न्यारे नहीं किये जासकते हैं। यहांतक बौद्ध कह चुके हैं। अब आचार्य कहते हैं कि यह चित्राद्वैतवादियोका कहना झंठ है प्रशंसनीय नहीं है। कारण कि
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