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________________ स्वाचिन्तामणिः २०७ बाह्यद्रव्यस्य चित्रपर्यायात्मकस्याशक्यविवेचनत्वाविशेषाश्चित्रैकरूपतापतेः यथैव हि ज्ञानस्याकाशस्ततो विवेचयितुमशक्यास्तथा पुद्रलादेरपि रूपादयः । बहिरंग द्रव्योंमें मी अनेक रूप, रसके साथ तादात्म्य रखनेवाले चित्रपर्याय - स्वरूप पदार्थ हैं। जैसे कि पानी में धुले हुए काले, पीले, नीले रंगों का आकार भिन्न नहीं किया जाता है तथा ठण्डाई में दूध, मिश्री, काली मिर्च, बादाम के रसोंके आकारका भेदीकरण नहीं होता है, यों विवेचन नहीं कर सकना बहिरङ्ग, अन्तरङ्ग दोनों में समान है, इस कारण यहां भी चित्राद्वैत रूप से या चित्राद्वैतरससे एकपनका प्रसंग हो जायेगा | यह बौद्धोंके ऊपर आपादन है जैसे ही चित्रज्ञानके आकार ज्ञानसे भिन्न भिन्न रूप होकर नहीं जाने जाते हैं या न्यारे नहीं किये जा सकते हैं । उसी प्रकार पुद्गलद्रव्य के रूप, रस आदिक और आत्मद्रव्यके चेतना, सुख, उत्साह आदि भी पृथक् नहीं किये जा सकते हैं, कोई अन्तर नहीं है । एतावता क्या इनका चित्राद्वैत बन जायेगा ? किंतु नहीं । नानाtrait बा पद्मरागमणिरयं चन्द्रकान्तमणिश्वायमिति विवेचनं प्रतीतमेवेति चेत्, सर्हि नीलाद्याकारैकज्ञानेऽपि नीलाकारोऽयं पीताकारश्चायमिति विवेचनं किम प्रतीतम् ? ! यदि चित्राद्वैतवादी यों कहें कि बहिरंग पदार्थों में तो न्यारे न्यारे आकार जान लिये जाते हैं देखिये, नाना रंगकी मणियोंके एक स्थानमै विद्यमान ( मौजूद ) रहनेपर यह लाल लाल पद्मराग areer प्रकाश है और यह पीला पीला चन्द्रकान्तमणिका प्रतिभास है । तथा यह हरा हरा पलाका आभास है, इसी प्रकार ठण्डाईं पेय द्रव्यमे मिर्च अधिक हैं, मीठापन कम है आदि आकार पृथक् पृथक् प्रतिभासित हो ही जाते हैं। ऐसा कहनेपर तो हम जैन भी कहेंगे कि तब तो समूहालम्बन ज्ञानमें या नील, पीत आदि आकारवाले एक चित्रज्ञानमें भी यह नीलका आकार है। ज्ञानमें इतना मेश पीत आकारका है, ज्ञानमें इतनी हरितकी प्रमिति है, क्या यह पृथक् रूपसे विचार करना ज्ञानमें नहीं प्रतीत हुआ है ? अर्थात् चित्रज्ञानमें भी भिन्न भिन्न प्रतीति हो रही हैं । चित्रप्रतिभासकाले तन्न प्रतीयत एव पश्चात्तु नीलाद्या मासानि ज्ञानान्तराण्यवियोदयाद्विवेकेन प्रतीयन्त इति चेत्, तर्हि मणिराशिप्रतिभासकाले पद्मरागादिविवेचनं न प्रतीयत एव, पश्चात्तु वत्प्रतीतिरविद्योदद्यादिति शक्यं वक्तुम् । बौद्ध बोल रहे हैं कि नाना आकारवाले चित्रज्ञानके प्रतिमास करते समय वह पृथक् पृथक् आकारोंका विवेचन प्रतीत नहीं होरहा ही है, हां पीछे तो मिथ्या, वासनाओं से जन्य अविधा के उदय होनेपर नील, पीत, आविकको जाननेवाले दूसरे झूठे झूठे ज्ञान भिन्न भिन्न रूपसे उन आकारों को
SR No.090495
Book TitleTattvarthshlokavartikalankar Part 1
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherVardhaman Parshwanath Shastri
Publication Year1949
Total Pages642
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size19 MB
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