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तत्त्वाचिन्तामणिः
१२ हानिवृद्धिओंमेसे एक हानि या वृद्धि होगी। शेष ग्यारह आगे पीछे समयों में होगी। किसी किसी गुणकी पर्यायोंके अविभागी अंशोंकी तो आठ या चार ही हानिवृद्धियां होती है। अनुजीवीगुणों के अतिरिक्त अन्य धर्म तो स्वमावसे ही विद्यमान रहते हैं। पर्याय शक्तियां भी स्थूलपर्याय पर्यत परिणमन करती हुयी मानी गयी है। इस प्रकार संक्षेपसे अनेकांतवादका व्याख्यान किया है। परमार्थभूत अनेकांतवादके बिना बंघ और मोक्ष आदिके हेतुओंकी किसी भी मममै सिद्धि नहीं हो पाती है, यह यहां समझाना है।
सत्यमद्वयमेवेदं स्वसम्वेदनभित्यसत् । तद्यवस्थापकाभावात्पुरुषाद्वैततत्त्ववत् ॥ १२८ ॥
यहां सम्बेदनाद्वैतवादी बौद्ध कहते हैं कि ठीक है, संघ, मोझ तथा उनके हेतु मिथ्याज्ञान और सम्यग्ज्ञान आदि भले ही सिद्ध न होवे, हमारी कोई क्षति नहीं है । तमी को हम स्वयं अप
को ही बेदन करनेवाला यह अकेला शुद्धज्ञानरूप ही है, ऐसा तत्त्व मानते हैं। यह सम्पूर्ण जगत् निरंश संवेदनस्वरूप है। आचार्य कहते हैं कि इस प्रकार अद्वैतवादियों का कहना भी अयोग्य है प्रशंसा योग्य नहीं है । क्योंकि अकेले उस शुद्ध ज्ञानकी व्यवस्था करनेवाला कोई प्रबलप्रमाण आपके पास नहीं है । जैसे कि ब्रह्माद्वैतवादी अपने नित्य ब्रह्मसत्त्वकी व्यवस्था नहीं कर सकते हैं।
न हि कुतश्चित्प्रमाणादद्वैतं संवेदनं व्यवतिष्ठते, ब्रमाद्वैतवत् । प्रमाणप्रमेययोर्दैव. प्रसंगात, प्रत्यक्षतस्तब्धवस्थापनेनाद्वैतविरोधः इति चेन, अन्यतः प्रत्यक्षस्य मेदप्रसिद्धः अनेनानुमानादुपनिषवाक्यावा तम्यवस्थापने द्वैतप्रसंगः माथितः।
बौद्धोंके माने गये अकेले संवेदनका अद्वैततत्त्व किसी भी प्रमाणसे व्यवस्थित नहीं हो पाता है, जैसे कि वेदान्तियोंका प्रमाद्वैत पदार्थ नहीं सिद्ध होता है। यदि अद्वतकी प्रमाणसे सिद्धि करोगे तो अद्वैत प्रमेय हुमा। इस प्रकार एक तो उसका साधक प्रमाण और दूसरा अद्वैत प्रमेय, इन दो तत्त्वोंके होमानेसे द्वैत हो जानेका प्रसंग होगा। यदि अद्वैतवादी यों कहे कि हम पस्यक्ष प्रमाणसे ही उस प्रत्यक्षरूप अद्वैतकी व्यवस्था करा देवेगे, तब तो अद्वैतका विरोध न होगा, यानी द्वैतका प्रसंग न हो सकेगा। ऐसा कहना तो ठीक नहीं है । क्योंकि अन्य प्रमाणों से प्रत्यक्षके मेव प्रसिद्ध हो रहे हैं । या दूसरे अनेक प्रत्यक्ष ती भेदोंको सिद्ध कर रहे हैं। दूसरी बात यह है कि प्रत्यक्ष और परब्रह्म या संवेदनाद्वैत एकम एक नहीं है । अतः ज्ञान और ज्ञेयकी अपेक्षासे द्वैतका प्रसंग आपके ऊपर लागू रहेगा। इस निरूपणसे यह भी कह दिया गया कि अनुमानसे अथवा वेद उपनिषद्के वाक्यसे उस अद्वैतकी व्यवस्था होना माननेपर मी वैतका पसंग होता है। अर्थात् प्राम, उद्यान ( बाग ) पर्वत, देवदत्त आवि सर्व पदार्थ ( पक्ष ) ब्रह्मस्वरूप पविभासके अंतरश होकर तप हैं ( साध्य ) क्योंकि वे सब प्रतिभास हो रहे हैं ( हेतु ) जैसे कि प्रतिभासका