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________________ तथा चिन्तामणिः अतिरिक्त दूसरों को भले प्रकार समझानेका उपाय और दूसरा यहां क्या हो सकेगा? बताओ । भावार्थ---शब्द ही विशिष्ट पदार्थों को समझा सकता है। इस प्रकार " बाबा करे तो डर, न करे तो भी हर " इस किंवदंसीके अनुसार वाच्यवाचक भाव भी आपको दोनों प्रकारसे कहना पस । ऐसे ही आधार आधेयमावका जिस संवेतनमें निषेध किया जावेगा, वह संवेदन आधार बन जायेगा और आधार भाषेयभावका निषेध करना आधेय बन जावेगा । इस प्रकार निषेध करनेपर भी आपको वे ही ग्राह्यमाइकमाव आदि " पोतकाक" (जहाजका कौमा) न्यायसे हृदय में धारण करने पड़ेंगे। मनेकांतके झपाटेसे तुम बच नहीं सकते हो । सोयें तयोः वाच्यवाचकयोः प्रामग्राहकभावादेनिराकृतिमाचक्षाणस्तद्भाव साधय" त्येवान्यथा तदनुपपत्तेः। सो ऐसा कहनेवाला प्रसिद्ध यह बौद्ध अपने संवेदनमें उन वाध्य और वाचकका तथा ग्राह्यमाहकभाव, कार्यकारणभाव, आदिके निराकरणको कहता हुआ उन वाच्यवाचक, और ग्राहाप्राहक, मादि भावोंको सिद्ध करा ही देता है। अन्यथा उनका निषेध करना ही सिद्ध नहीं हो सकता है। सो समझलीजिये। संवृत्या स्वप्नवत्सर्वं सिमित्यतिविस्मृतम् । निःशेषार्थक्रियाहेतोः संवृतेर्वस्तुताप्तितः ॥ १५३ ॥ यदेवार्थक्रियाकारि तदेव परमार्थसत् । साम्वृतं रूपमन्यत्तु संविन्मात्रमवस्तु सत् ॥ १५४ ॥ संवेदनाद्वैतवादी कहते हैं कि हम परमार्थरूपसे ग्राह्यमाहकमाव आदिका लण्डन करते हैं। किन्तु व्यवहारसे स्वप्न के समान सबको कल्पनासिद्ध मानलेते हैं। आचार्य बोलते हैं कि इस प्रकार बौद्धोका कहना अत्यन्त भूलसे भरा हुआ है। क्योंकि संवृत्तिस्वरूप व्यवहार सभी अर्थक्रियाओंका कारण है । अतः व्यवहारको वस्तुपना प्राप्त है । व्यवहार से जीवकी मनुष्य, देव, तिर्यञ्च आदि अवस्थायें हैं तथा व्यवहारसे ही बालकपन, युवापन, बुढापा आदि दशाये है। किन्तु ये सम्पूर्ण म्यावहारिकधर्म वस्तुभूत होते हुए अर्थक्रियाओंको कर रहे हैं । स्वप्नके समान अलीक (झूठ मूठ) नहीं हैं। जो ही तत्व कीडन, रमण, आकाण, दाह, पाक आदि व्यवहारकी या केवलज्ञान आदि परमार्थकी अर्थक्रियाओंको करता है, वही वास्तविक सत् पदार्थ कहा जाता है। इससे अन्य जो अर्थक्रियाओंको नहीं करते हुए केवल उपचारसे कश्चितकर लिये गये हैं, वे स्वभाव तो वस्तुरूपसे सत् नहीं हैं। आपका माना गया केवल संवेदनाद्वैत भी अवस्तु है ! अतः असत् है अर्थात् वस्तुभूत सत् नहीं है । और जिस कार्यकारणभाय आदिको आप असत् कह रहे हैं, ये परमार्थभूत पदार्थ हैं।
SR No.090495
Book TitleTattvarthshlokavartikalankar Part 1
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherVardhaman Parshwanath Shastri
Publication Year1949
Total Pages642
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size19 MB
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