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________________ ૧૨૨ सवाचिन्तामविः " स्वभवत्सांपतेन रूपेण प्राथप्राइकमावाभावो ग्राझा पाध्यायकमावो बाध्य कार्यकारणभावोऽपि कार्यों वाच्यवाचकभावो वाच्य ॥ इति ब्रुवाणो विस्मरणशीला, स्वयमुक्तख सांबवरूपानक्रियाकारिस्वस्थ विसरणात् । स्वमके समान व्यवहारसे काल्पना किये स्वभाव करके ग्राह्यग्राहक मावका अभाव मी ग्राह्य हो जाता है और बाध्यापकभाव मी बाध्य हो जाता है एवं कार्यकारणभाव मी कार्य हो जाता है तथैव च्यवाचकभाव भी शब्दोंके द्वारा वाच्य हो जाता है यानी कह दिया जाता है। इस प्रकार . जो संवेदनाद्वैतवादी बौद्ध कह रहा है, उसको अपने कहे हुए वचनोंको भूल बानेकी टेव पटी हुपी है। तभी हो स्वयं अपनेसे कहे जा चुके " कल्पितस्वमाव कभी अर्षक्रियाओं को नहीं करते हैं" इस बातको मूल गया है। भावार्थ-पहिले बौदोंने यह कहा था कि व्यवहारले कस्सित किया हुआ पदार्थ अर्थक्रियाओंको नहीं करता है और अब कहते हैं कि जैसे स्वममें बोल उठना, हर्ष क्षय होना, भयभीत होकर इदयमें धडकन हो जाना, आदि अर्थक्रियाएं होती है, वैसे ही जीवकी कसित की गयीं पात्प युवा, आदि अवस्थाओं में होनेवाले भावोसे भी खेलना, उपार्जन करना, श्रृंगार करना, सृष्णा करना, आदि अर्थक्रियायें हो जाती हैं। ऐसे भुल्लड बुद्ध मनुध्यकी पहिले पीछेकी कौनसी बातपर विश्वास किया जावे ! देखो जी! स्वम अवसाम भी जो अर्थक्रियायें होती हैं, वे वस्तुमूत परिणामोंसे होती हैं। वास्तव सिंहसे जैसा मय होता है कस्पितसे भी वैसा ही भय होता है। स्वममें भी कण्ठतालु मादिके व्यापारस बोलता है। अन्यथा नहीं, इत्यादि मूर्तिपूजाम भी ऐसा ही रहस्य है। कार्यकारणभावका अतिक्रमण नहीं है । स्वम, मूर्छित या सनिपात दशामें जो कार्य होरहे हैं, उनके कारण वस्तुभूत वहां विद्यमान हैं। तुमको ज्ञान न होय तो इसका उत्तरदायित्व कारणोंपर नहीं है । हां, जो स्वममे झूठी मनःकल्पनायें होरही हैं वे अवश्य निर्विषय है, असत्यार्थ हैं। उन झूठे अओंसे उनके योग्य वास्तविक प्रक्रिया नहीं हो सकती हैं। तथा यषप्रायग्राहकसायक्रियानिमियं यत्सावचं रूपं तदेव परमार्थसत् वहिपरीतं तु संवेदनमात्रमवस्तु सदिति दर्शनांवरमायातम् । जैनसिद्धांसमें यह बात बहुत स्पष्ट रूपसे कह दी गयी है कि जो व्यवहारमें मान लिया गया पदार्थ, ग्राह्यमाहकमाव, कार्यकारणभाव, आदि सम्पूर्ण अर्थक्रियाओंका कारण होरहा है, वह ही वास्तविकरूपसे सत्वस्त्र है और उससे विपरीत तो तुम नौद्धोंका माना गया और कुछ भी अर्थकियाओंको नहीं करनेवाला वह केवल निरंश संवेदन वस्तुरूप सत् पदार्थ नहीं है। इस प्रकार बौद्धोंको दूसरे स्याद्वादर्शनका स्वीकार करना ही प्राप्त हुआ। अर्थात् अपने इष्ट होरहे संवेदनाद्वैतके आग्रहको छोड़कर अनेकांतदर्शनकी शरण लेना अनिवार्य रूपसे आ पड़ा। व्यवहारतुच्छ नहीं होता है । किंतु वस्तु और वस्तुके अंशोंको छूनेवाला होता है । व्यवहार और निश्धय दोनों भाईचारेके नातेसे वास्तविक परिणामोंको विषय करते हैं।
SR No.090495
Book TitleTattvarthshlokavartikalankar Part 1
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherVardhaman Parshwanath Shastri
Publication Year1949
Total Pages642
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size19 MB
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