SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 629
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ सा संवृतं चेत् क नामार्थक्रियाकारि च तन्मतम् । हृत सिद्धं कथं सर्वं संवृत्या स्वप्नवत्तव ॥ १५५ ॥ १२३ यदि उन बौद्धोंका यह मत होवे कि कल्पना किया हुआ पदार्थ मला कहा ठीक अर्थक्रियाओं का है १ जो कुछ आपको अर्थक्रियाएं होती हुबी दीख रही हैं, वे अर्थक्रियाएं तो ठीक ठीक नहीं हैं । किन्तु कल्पित हैं। वस्तुभूत अर्थक्रिया तो शुद्ध ज्ञप्ति होना ही है । फिर हमको मूल जानेकी ढबवाला क्यों कहा जाता है ! इसपर आचार्य महाराज कहते हैं कि हमको तुम बौद्धोंकी बुद्धिपर खेद आता है कि तुमने पहिले यह कैसे कह दिया था कि सम्पूर्ण पदार्थ व्यावहारिक कल्पनासे अर्थक्रिया करते हुए स्वमके समान प्रसिद्ध माने गये हैं । जब कि आप कल्पित अर्थक्रिया और उसको करनेवाले झूठमूठ अर्थको अवस्तु मानते हैं । फिर आपने उन सबको सिद्ध किया हुआ कैसे कह दिया था ? भावार्थ ऐसा मानने पर तो तुम व्यवहार से किसी पदार्थको सिद्ध नहीं कर सकोगे । ग्राह्यग्राहक भावार्थ क्रियापि सांवृती न पुनः पारमार्थिकी, यतस्तन्निमित्तं साधूचं रूपं परमार्थसत् सिभ्येत् । ताविकी त्वक्रिया स्वसंवेदनमात्र तदात्मकं संवेदनाद्वै कथमवस्तु सनाम ? ततोऽर्थक्रियाकारि साइतं चेति व्याहृतमेतदिति यदि मन्यसे, तदा कथं स्वमवत् संवृत्या सर्वे सिद्धमिति ब्रूपे ? तदवस्वत्वाच्या घातस्य सांवृतं सिद्धं चेति । बौद्ध कहते हैं कि ग्राह्यग्राहकभाव, बडबडाना, खेलना, आदि अर्थक्रियाएं भी यों ही कोरी कल्पित हैं, वे फिर कैसे मी वस्तुभूत नहीं हैं । जिससे कि उन अर्थक्रियाओं के कारणभूत न्यावहारिक कल्पित स्वरूपों को आप अन वास्तविक सिद्ध कर देवें। सच पूछो तो बात यह है कि वस्तुको स्पर्श करनेवाली ठीक ठीक अर्थक्रिया तो केवळ शुद्धसंवेदनकी ही अपनी शक्ति होते रहना है। उस सिरूप क्रिया से तादात्म्यसंबंध रखता हुआ संवेदनाद्वैततत्व मला वस्तु सत् नहीं कैसे हो सकता है ?, अर्थात् संवेदन सो वस्तुस्वरूप करके सत्रूप है। इस कारण जो अर्थक्रियाhet करनेवाला है, वह उपचरिख ( कल्पित ) है । इस नियममें व्याघात दोष है । भावार्थ-जो अर्थक्रियाओं को करेगा, वह परमार्थभूत है । सम्वृति ( कल्पित ) नहीं है । और जो सांकृत है, वह अर्थक्रियाओंको नहीं करता है ! हम बौद्ध इस बातपर अमे हुए हैं। अब आचार्य महाराज कहते हैं कि यदि तुम पौद्ध ऐसा मान बैठे हो सब तो " स्वमके समान सम्पूर्ण सत्य व्यवहार दृष्टिसे सिद्ध हैं " इस बातको कैसे कह सकते हो ! तुम्हारे ऊपर व्याघातदोष वैसाका वैसा ही लागू हो रहा है। जो उपचार से कल्पित है, वह सिद्ध कैसे और जो सिद्ध हो चुका है, वह कोरी कल्पनासे गढ़ा हुआ कैसे हो सकता है दीजिये, सभी ऐसे मूलेपनकी देवका मारण हो सकेगा । ? इसका उत्तर
SR No.090495
Book TitleTattvarthshlokavartikalankar Part 1
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherVardhaman Parshwanath Shastri
Publication Year1949
Total Pages642
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size19 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy