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________________ तत्वार्थचिन्तामणिः नयका अवलम्ब लेकर ज्ञान, दर्शन आदि तत्त्वोंको अनेक कारकपना युक्त है और वैसा होनेपर दर्शन, ज्ञान और चारित्र इन शब्दोंका कर्ता आदि यानी फर्ता, कर्म, करण और भावमें युट् या णित्र प्रत्यय करके कृदन्तमें साधन करना हमने बहुत अच्छा कहा था। इस प्रकार शब्दशासके अनुसार आदि सूत्रों कहे हुए शब्दोंकी निरुक्ति करके अभीष्ट अर्भको निकालनेका प्रकरण समाप्त हुआ । पूर्व दर्शनशब्दस्य प्रयोगोऽभ्यर्हितत्वतः । अल्पाक्षरादपि ज्ञानशब्दावन्द्वोऽत्र सम्मतः ॥ ३३ ॥ व्याकरणशास्त्रके अनुसार " च " के अर्थमें किये गये द्वन्द्वसमास थोडे अक्षरवाले शब्दका पहिले प्रयोग होता है अर्थात् जैसे कि एक घढेमें ज्वारके फूला, चना और ककड डालकर हिलादेनेसे अपने स्वमायोंके अनुसार नीचे भागमे काड, बीचमै चने और ऊपर फूला हो जाते हैं। उसी प्रकार शब्दकी स्वामाविक शक्तिसे पर्वत और नदीका द्वन्द्वसमास करनेपर पर्वतके पहिले नदी शब्दका प्रयोग हो जायेगा, किंतु अल्पस्वरवाले पदके प्रथम प्रयोगके इस नियमका बाधक दूसरा नियम है कि पूज्यपदार्थका सबसे प्रथम उच्चारण होना चाहिये । ऋषभदेव और गणघरका या महावीर और गौतमका द्वन्द्व समास होनेपर गदग बसाले मामाही पहिले हमारा होगा । इस कारण अन्य अक्षरवाले भी ज्ञान शब्दसे प्रथम पूज्य होनेके कारण दर्शन शब्दका प्रयोग करना ठीक है । इस सूत्रमें उमास्वामी महाराजने जिसमें पूज्य पहिले बोला जाता है ऐसा द्वन्द्वसमास यहां अभीष्ट किया है। दर्शनं च ज्ञानं च चारित्रं च दर्शनज्ञानचारित्राणीति इतरेतरयोगे द्वन्द्वे सति बानशवस्य पूर्वनिपातप्रसक्तिरल्पाक्षरत्वादिति न चोद्यम्, दर्शनस्याभ्यहितस्वेन शानापूर्वप्रयोगस्य सम्मतत्वात् । च अन्मयके चार अर्थ हैं । समुच्चय, अन्वाचय, इतरेतरयोग और समाहार । परस्पर में नहीं अपेक्षा रखनेवाले अनेकोंका एक अन्वय होजाना समुच्चय है। घटको लाओ, पटको मी लाओ (घटं परञ्चानय ) यहां च का अर्थ समुच्चय है । गाय, युवा, पालक, राजा, पण्डित और देवोंको भी दिन रात लेजाता हुआ यमराज ( आयुष्य कर्मका अन्तिम निषेक) तृप्त नहीं होता है (गां युधानं नावं नृपतिश्चाहरहर्नयमानो यमस्तृप्ति न याति ) यहां चका अर्थ अम्वारय है, कतिपयोमिसे कोई कोई यों ही प्रसार प्राप्त होजाय ऐसी दशामे अन्वाचय है । परस्परमें अपेक्षा रखते हुये मिलजाना इतरेतर योग है । तथा ( हस्तौ च पादौ च हस्तपाद ) हाथ पैर यहां समुदायरूप समाहार द्वन्द्व है। प्रकरणमे पहिले सूत्रका दर्शन और ज्ञान तथा चारित्र इस प्रकार परस्परमें 59
SR No.090495
Book TitleTattvarthshlokavartikalankar Part 1
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherVardhaman Parshwanath Shastri
Publication Year1949
Total Pages642
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size19 MB
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