SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 471
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ तत्त्वावचिन्तामणिः : मिलानेवाले इतरेतर योग बन्द समासके होनेपर " दर्शनज्ञानचारित्राणि " ऐसा पद बनता है। यहां अल्प अक्षर होने के कारण ज्ञान शब्दका पूर्व में निपात हो जानेका प्रसंग आता है यह कराक्ष रूप चोध करना तो ठीक नहीं है। क्योंकि ज्ञानकी अपेक्षासे सम्यग्दर्शनको पूज्यपना है। इस कारण दर्शनका पूर्व में प्रयोग करना अभीष्ट किया है। यह नियम शब्द शास्त्रमें भी मले प्रकार माना गया है । वैयाकरण, नैयायिक, दार्शनिक, साहित्यवित्, सभी विद्वानोंकी इसमें सम्मति है। कुवोम्यो दर्जनस्य न पुननिस्य सर्वपुरुषार्थसिद्धिनिबन्धनस्येति चेत् किसीका आक्षेप है कि किस कारणसे ज्ञानकी अपेक्षा दर्शन पूज्य है ! सम्पूर्ण धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष पुरुषार्थोकी सिद्धि के कारण शानको ही फिर पूज्यपना क्यों नहीं है। बताओ। ऐसी शेने पर मनाय न्हाना बना देते हैं ! ज्ञानसम्यक्त्वहेतुत्वादभ्यो दर्शनस्य हि । तदभावे तदुद्भुतेरभावाद्दरभन्यवत् ॥ ३४ ॥ शानके समीचीनपनेका हेतु हो जानेसे दर्शनको ज्ञानको अपेक्षासे अधिक पूज्यपना है। क्योंकि उस सम्यग्दर्शनके न होनेपर उस सम्पाज्ञानकी उत्पत्ति नहीं होने पाती है। जैसे कि अनंत काल तक मी मोक्ष न जानेवाले दूर भन्यके मिथ्याज्ञान होते. हुए मी सम्यग्दर्शनके न होनेसे उस ज्ञानको सम्यग्ज्ञानपना नहीं आता है और निकर मन्यके अधिकसे अधिक वर्ष पुद्गरूपरिवर्तन काल मोक्ष प्राठिम अवशेष रहनेपर सम्यग्दर्शन गुणके प्रगट होते ही उस समयके विद्यमान ज्ञानको समीचीनपनेका व्यवहार हो जाता है । ज्ञानमें यह समीचीनपना कोरी कल्पना नहीं है, किंतु इस सम्यग्ज्ञानके संस्कार वश थोडे ही मवोमें वह ज्ञानी जीव और पुद्गलके मेदको निरखता हुआ देशसंयम और सकलसंयमको प्राप्त होकर निःश्रेयसको प्राप्त कर लेता है। यदि एक बार भी दर्शन मोहनीयके उपशम या झयोपशमके हो जानेपर स्वानुभूतिरूप प्रत्यक्ष हो जावे, अनन्तर मले ही वह जीव मिथ्यादृष्टी बन बावे किंतु उस ज्ञानका संस्कार उत्तरोतर शानकी पर्यायोंमें प्रविष्ट होता हुआ वह संस्कृत मिध्याज्ञानका कालान्तरमें औपशमिक और शायोपमिक सम्यक्त्यका कारण होकर क्षायिक सम्यादर्शनको उत्पन्न कर ही देवेगा । इस हेतुसे नाम कर्मकी प्रकृतियों में तीर्थहर प्रकृतिके समान मात्माके अनेक गुणोंमें सम्यग्दर्शन गुण पूज्य माना गया है। इदमिह सम्प्रघार्य ज्ञानमात्रनिषन्धना सर्वपुरुषार्थसिद्धिः सम्यग्ज्ञाननिवन्धना वा ? न तावदायः पक्षः, संशयादिज्ञाननिवन्धत्वानुषका, सम्परज्ञाननिवन्धना घेत, तेहि ज्ञानसम्यक्त्वस्य दर्शनहेतुकरवात् तत्वार्थश्रद्धानमेवाम्पहितम्, तदभावे पानसुम्यक्त्वस्यानुम्दतेरमव्यस्थेव, न चेदमुदाहरणं साध्यसाधन विकलमुभयोः संप्रतिपचेः ।
SR No.090495
Book TitleTattvarthshlokavartikalankar Part 1
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherVardhaman Parshwanath Shastri
Publication Year1949
Total Pages642
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size19 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy