SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 433
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ तत्त्वार्थचिन्तामणिः नाप्यखात्मलाभः स स्वात्मलाभ इति श्रुतेः, प्रदीपनिर्वाणवत्सर्वथाप्यभावश्चित्तसंवानस्य मोक्षो न पुनः स्वरूपलाभ इत्येतन हि युक्तिमत्, तत्साधनस्यागमकत्वात् । ૪૨૮ और आत्मा स्वाभाविक स्वरूपोंका लाभ न होना भी मोक्ष नहीं है । क्योंकि वह प्रसिद्ध मोक्ष अपने आत्मीय स्वभावोंका लाम होना रूप है, ऐसा आठोपज्ञ शास्त्रों में वर्णन होता चला आ रहा है । इसपर बौद्धों का कहना है कि प्रदीपके वुझ जानेपर जैसे कलिकाका कुछ भी भाग अवशेष नहीं बचता है, सभी अंशोंका नाश हो जाता है, ऐसे ही विज्ञानस्वरूप चित्र आत्माकी ज्ञान ाराका सभी प्रकारले क्षय हो जाना रूप मोक्ष है। किंतु फिर जैनियोंका माना हुआ आत्मा के स्वरू पकी प्राप्ति होना मोक्ष नहीं है। आचार्य कहते हैं कि इस प्रकार वह बौद्धोंका कहना तो युक्तियोंसे सहित नहीं है । क्योंकि उस आत्मा द्रव्यका सर्व प्रकारसे अमाव हो जाता है । इस बातको सिद्ध करनेवाला कोई साधक प्रमाण नहीं है और जो कुछ डीला थोथा, प्रमाण आपने दिया है वह arera ar reet समझानेवाला प्रमाण नहीं है । उसमें दिया गया आपका हेतु हेत्वाभास है । साध्या गम नहीं है । नापि बुद्धयादिविशेषगुणाभावमात्रमात्मनः सम्वादिगुणाभावमात्रं वा मोक्षः, खरूपलाभस्य मोक्षतोपपत्तेः स्वरूपस्य चानन्तज्ञानादिकदम्बकस्यात्मनि व्यवस्थितत्वात् । और न केवल नैयायिक, वैशेषिकोंके द्वारा माना गया बुद्धि, सुख, आदि विशेष गुणोंका Aaja दो जाना भी आत्माका मोक्ष है । तथा सांख्योंके द्वारा माना हुआ सत्र आदि यानी सत्त्व गुण, रजोगुण और तमो गुणका केवल अभाव भी आत्माकी मुक्ति नहीं है। क्योंकि स्वाभाविक रूपकी प्राप्ति होनेको मोक्षपना सिद्ध है । केवल अभावको ही मोक्ष माना जावेगा तो लोष्ठ, भिति आदि भी मोक्ष होने का प्रसंग हो जायेगा । बुद्धि आदि गुणोंका अथवा सत्त्व आदि गुणोंका ध्वंस कहकर लोष्ठमै अतिव्यासिका वारण नहीं कर सकते हो। क्योंकि नैयायिकोंने ध्वंस और अत्यंतामाव दोनों को ही तुच्छ और स्वभावसे रहित अभाव पदार्थ माना है और वास्तवमें मोक्ष तो भावस्वरूप आत्माकी शुद्ध चिदानंद अवस्था है । अनंतज्ञान, अनंतसुख, क्षायिकसम्यक्त्व और अव्याबाध आदि गुणों तथा अहिंसा, क्षमा, उत्तम ब्रह्मचर्य आदि धर्मोका समुदाय आत्माका स्वरूप है। गुणीसे गुण पृथक नहीं होते हैं । अतः मोक्ष अवस्था में स्वाभाविक परिणतिले युक्त वे गुण आत्मा में व्यवस्थित रहते हैं । अनेक शुद्ध गुणोंसे युक्त आत्मा अनंत कालतक अपने स्वरूप में विराजमान रहता है। I 1 नास्ति मोक्षोऽनुपलब्धेः खरविषाणवदिति चेत् न, सर्वप्रमाणनिवृत्तेरनुपलब्धेरसिवादागमानुमानोपलब्धेः साधितत्वात् प्रत्यक्षनिवृतेरनुपलब्धेरनैकान्तिकत्वात्, सकलशि
SR No.090495
Book TitleTattvarthshlokavartikalankar Part 1
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherVardhaman Parshwanath Shastri
Publication Year1949
Total Pages642
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size19 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy