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________________ तत्त्वार्थचिंतामणिः इन प्रभासयोंके अनुसार सन्याल आदि आ. मोरे घात करनेवाले आठ कर्मीको बतलाया है । अघाति को भी नका अर्थ ईषत् यानी " थोडा " माना है। अत: घाति संघातघातनं अर्थात् ज्ञानावरण आदि आठ कौका संझय करनेवाले सिद्ध भगवान् हैं। "पुनः कथम्भूत क" फिर कैसे हैं सिद्ध परमात्मा " विद्यास्पदं " केवलज्ञान जिनमें प्रतिष्ठित होरहा है अर्थात् केवलज्ञानके सार्वभौम अधिपति हैं या शरीरादिसे रहित होकर शुद्धचैतन्य मात्र है सतत अवस्थान जिनका | " कथं प्रवक्ष्यामि " कैसा है निरूपण करना, तत्वार्थ श्लोक्याति यथा स्यात् तथा । यह क्रियाविशेषण है । तत्त्वार्थश्लोक अर्थान् आत्मतत्वके हितकीर्तनमे अवार्ति, अव+आति अवका अर्थ अवक्षेपण है । यानी दूर करदी है संसार संबंधी यातनायें (पीडाय) जिस कथनमें, यहां भी अव उपसर्गके अकारका लोप हो जाता है, यहां अपसमानार्थक अव उपसर्ग है, जैसे कि अवचिनोति अपचिनोति । इस श्लोकका चतुर्थ अर्थ इस प्रकार है: ( अहं विद्यास्पदं आध्याय प्रवक्ष्यामि ) मुझको विधा यानी आद्यतत्त्वज्ञान की प्राप्तिके आधारभूत समंतभद्र स्वाभीके वाश्य ही है । अतः अन्वर्थनामा मुझ विद्या (विद्यानन्द ) के श्रद्धास्पद आराध्य गुरु महाराज समंतभद्रस्वामी हैं । अतः मैं अपने गुरु संमतभद्र स्वामीका ध्यान करके ( प्रवक्ष्यामि ) मानूं स्वर्गस्थित गुरु महाराजके सन्मुख तत्वार्थशास्त्रकी परीक्षा देनेकी सदिच्छासे स्वभ्यस्त प्रमेयका भलेप्रकार निरूपण करूंगा । ( कथम्भूतं विद्यास्पद) कैसे हैं समन्तभद्रस्वामी, “ श्री वर्धमानं " अर्थात् काञ्ची, वाराणसी आदि नगरियों में अनेक विद्वानों के साथ शास्त्रार्थ करके विजयलक्ष्मीको प्राप्तकर शिवकोटी राजाके सन्मुख स्वकीय नमस्कार झेलनेके योग्य जगदानंदन चंद्रप्रभ भगवान्की प्रतिभाप्रभावनाका चमत्कार दिखलाकर अखिल भारतवर्ष जैनधर्मकी ध्वजा फहरानेवाली विजयलक्ष्मीको अहोरात्रि चतुर्गुणित वृद्धिको प्राप्त कर रहा है मान यानी आत्मगौरव जिनका, श्रियं वर्द्धयतीति श्रीवर्द्धः। ( पुनः कथम्भूतं समंतभद्रं ) फिर कैसे हैं श्री समंतभद्र " घातिसंघातघातनम् " सम्यग्दर्शनकी रोमरोमान रूपसे रक्षा करते हुए शरीरस्वस्थताके घाती भस्मक आदि अनेक रोग समुदायको जिनवाक्य पीयूषधारासे घात करनेवाले अथवा स्याद्वादसिद्धान्तक प्रचार प्रभावनारूप शुभभावना विचारोंकी वासनासे अग्रिम जन्ममें त्रैलोक्यानंद विधायिनी, तीर्थकर प्रकृतिको बांधकर आगामी उत्सर्पिणी कालमें तीर्थकर होते हुए ज्ञानावरण आदि समुदायको अनंतानंत कालतकके लिये घात करनेवाले । घातिसंघात घातयिष्यति, (पुनः कथम्भूतं ) फिर कैसे हैं श्री समंतभद्र स्वामी ( सत्यार्थ श्लोकवार्तिक ) वर्तिकानां समूहो वार्चिकम्-तत्त्व करके निर्णीत अर्थ समूहको प्रकाशनार्थ या प्रवर्धनार्थ परवादिमदोन्माथिनी वाणीरूप वर्तिकाओंके ( दीप कलिकाओंके ) समुदाय रूप है । "शाकपार्थिवादीनामुपसंख्यानम् ।" करके यहां मध्यमपदलोपी समास है अर्थात् श्रीसंमतभद्र स्वामीकी वाम्धारारूपी प्रदीपकलि
SR No.090495
Book TitleTattvarthshlokavartikalankar Part 1
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherVardhaman Parshwanath Shastri
Publication Year1949
Total Pages642
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size19 MB
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