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तत्वार्थचिन्तामणिः
बौद्ध कहते हैं कि जो नष्ट हो गया है वह कार्यकारी न माना जायेगा तो फल रातको जो दस बजे सर्वथा नष्ट हो गया है वह जागती अवस्थाका ज्ञान आज प्रातः काल सोतेसे उठते समय के ज्ञानका कारण कैसे हो जाता है ! बताओ इस कारण आप जैनोंका माना गया हेतु व्यमिचारी है। आचार्य कहते हैं कि इस प्रकार बौद्धोंका कहना ठीक नहीं है क्योंकि हमने हेतुका विशेषण वासनासहितपना दे रखा है। कल रातके दस जेके पहिले होनेवाला ज्ञान यद्यपि नष्ट हो गया है तो भी उसकी वासना सोते समय रही है । अतः उस वासनाके बलसे आज प्रातःकालके जागते समयका ज्ञान उत्पन्न हो गया था । वासनाका उद्घोष हो जानेपर पूर्वका ज्ञान भी अपने फार्यको कर देता है यह अनुमान हमने सुगत सिद्धान्त के अनुसार बौद्ध के माने गये हेतुसे बनाया है । जैन सिद्धांत में सोते और जगाते समय एक ही ज्ञानधारा मानी है केवल क्षयोपशमका वैयार है एकही ज्ञानगुणकी अनेक पयोंये होती रहती है ।
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अन्यथा यानी ऐसा न मानकर अन्य प्रकारसे मानोगे अर्थात् यदि बौद्ध वासनाओंके नष्ट हो आनेपर वासनाओंके प्रकट हुए बिना भी पूर्व ज्ञानको कार्यकारी मानेगे तो पूर्व जन्मोंके धन, पुत्र, कलत्र आदि उत्पन्न हुए, मिथ्याज्ञान भी जीवन्मुक्त अवस्थामें अकेले मिथ्याज्ञानों को पैदा कर देवेगे किंतु बुद्ध आपने एक भी मिथ्याज्ञान नहीं माना है । यों अतिप्रसंग दोष बन बैठेगा ।
यदि आप बुद्धके पूर्वकालीन विवक्षा नामक कल्पनाओं की वासनाका उद्घोष होता मानोगे तब तो सुगतके विवक्षास्वरूप विकल्पज्ञानोंकी उत्पत्तिका प्रसंग आजावेगा । ऐसी दशा में सम्पूर्ण रूपसे कल्पनाओंका नाया हो जाना लुगसके कैसे सिद्ध हुआ ! | कथापि नहीं ।
स्यान्मर्त, " सुगतवाचो विवक्षापूर्विका वाक्त्वादसदादिवाग्वत् । सद्विवक्षा च बुद्धदशायां न सम्भवति, तत्सम्भवे बुद्धत्वविरोधात् । सामर्थ्यात् पूर्वकालभाविनी विवक्षाबाग्वृत्तिकारणं गोत्रस्खलनवदिति " |
पौद्धका मत यह भी रहे कि “ सुगतके वचन ( पक्ष ) बोलने की इच्छापूर्वक उत्पन्न हुए हैं ( साध्य ) क्योंकि वे वचन हैं । ( हेतु ) जैसे कि हम आदि लोगों के वचन इच्छापूर्वक ही उत्पन्न होते हैं (दृष्टांत ) इस अनुमानसे वचनोंका बोलनेकी इच्छा को कारणपना आवश्यक सिद्ध होता है किंतु बुद्ध अवस्थामे वचनोंका कारण इच्छारूप कल्पनाज्ञान सम्भव नहीं है ।
यदि उन कल्पना ज्ञानका सम्भवना जीवन्मुक्त अवस्था में भी माना जावे तो बुद्धपनेका विरोध आता है । बुद्ध निर्विकल्पक है और वचनोंके पहिले इच्छा मानना भी लप्त है। अतः कार्यकारणकी शक्ति के अनुसार पहिले कालमें होनेवाली विवक्षा बुद्धकी वचन प्रवृत्तिका कारण है। जैसे कि गोत्र वनमै प्रायः देखा जाता है। कभी कभी हम बोलना कुछ चाहते हैं और मुलसे अन्य दी