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________________ বজিবিলিঃ अनन्तानुबन्धी कवायकी वासना अनेक वर्षातक चलती चली जाती है । एक झटकेदार प्रचण्ड क्रोध कर दिया जाय तो उसका संस्कार संख्यात, असंख्यात और अनन्त जन्मोंतक रहता है । इसी प्रकार अप्रत्याल्पानावरण, प्रत्याख्यानावरण और संज्वलनका छद्द महीने, पन्द्रह दिन और अन्तर्मुहूर्त तक उत्तरोत्तर पर्याय परिणत होनेका संस्कार रहता है। तथा किसी धारणास्वरूप ज्ञानसे किसीको एक घण्टेतक मरण होता रहता है, किसीसे एक वर्ष, दस वर्ष तथा कई जन्मोंतक भी संस्कार बना रहता है। भूलता नहीं है । भावार्थ-जैसे बन्दूककी गोलीमें हजार गज तक जाते हुए वेग नामका संस्कार बना रहता है और प्रत्येक आकाशके मदेशपर उसका वेग उत्पत्तिकमसे न्यून होता जाता है । सर्वथा वेगके नष्ट होजानेपर गोली गिर पडती है। ऐसे ही एक वस्तुका ज्ञान होनेपर दस वर्ष तक उसकी स्मृति रहती है । इसका भाव यह है कि दस वर्षतक होनेवाले असंख्यात ज्ञानों में उसका संस्कार चलता रहता है, यदि देवदत्तने जिनदत्तसे कहा कि तुम दिल्ली जाओ तो हमारे लिये पांच सेर बादाम लेते आमा । उस समयसे लेकर जिनदसके दिल्ली पहुंचने तक दस घण्टेमे जितने घट, पट आदिफके असंख्यात ज्ञान हुए हैं। उन सब झानोंमें अध्यक्त रूपसे यह संस्कार घुसा हुआ है कि देवदत्तके लिये पांच सेर बादाम लाना है। यदि शानके समान संस्कार भी सुनने के बाद नष्ट हो गया होता तो दिल्ली पहुंचनेपर स्मृति कैसे भी नहीं होसकती थी। हम लोगोंके झानगुणकी प्रतिक्षण एक पर्याय होती है । उसमें प्रगररूपसे एक, दो, चार पदार्थ विषय पड़ते हैं किंतु भमकटरूपसे उन ज्ञानाम अनेक पदायाँके संस्कार चले आरहे हैं। किंचिर उद्बोधकके मिलने पर शीध पूर्वके ज्ञासपदार्थकी स्मृति हो जाती है । यह तो जैन सिद्धांत के अनुसार वासनाका तत्व है । बौद्ध लोग भी ऐसी बासना मानते होंगे । अंतर इतना है कि उनके यहां पूर्वपर्यायका उत्तरपर्यायमै द्रव्यरूपसे भन्वय नहीं माना गया है। अतः बालकी नींव पर बने हुए महलके समान उनका वासनाका मानना ढह जाता है । अनुमान बनाकर प्रकृतमें (हेतु) यह कहना है कि " जो वासनासहित नष्ट हो गया है वह कुछ मी कार्य नहीं कर सकता है ( साध्य ) जैसे कि धन, पुत्र, कलत्र आदि अनात्मीय पदार्थोमे " ये मेरे हैं। ऐसा हर श्रद्धान स्वरूप अतत्तश्रद्धान मूलसहित नष्ट हो गया है। अतः जीवन्मुक्त अवस्थामै वह कल्पित मिथ्याश्रद्धान पुनः उत्पन्न नहीं होता है। ( अन्वयदृष्टांत ) बुद्धके विषक्षा नामक कल्पनाओंका समुदाय वासनासहित नष्ट हो गया माना है ( उपनय ) इस कारण पूर्णरूपसे नष्ट हो गयी पूर्व विवक्षासे सुगतके वचनोंकी प्रवृत्तिका होना यह प्रयोजन साधना युक्तिसंगत नहीं है।" (:निगमन ) जाग्रद्विज्ञानेन व्यभिचारी हेतुरिति चेत्, न सवासनग्रहणात् । तस्य हि वासनाप्रबोधे सति स्वकार्यकारित्वमन्यथातिप्रसंगात् । सुगतस्य विवक्षावासनाप्रयोगोपगमे तु विवधोत्पत्तिप्रसक्तेः कृतोऽत्यन्त कल्पनाविलयः ?
SR No.090495
Book TitleTattvarthshlokavartikalankar Part 1
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherVardhaman Parshwanath Shastri
Publication Year1949
Total Pages642
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size19 MB
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