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________________ __ आचार्य उनके मतका वर्णन करते हैं कि बौद्ध लोग भालयविज्ञान और प्रवृतिविज्ञान इस प्रकार ज्ञानकी दो धाराएं मानते हैं। सोते समय आलयविज्ञानकी धारा चलती रहती है और जागते समय प्रवृत्तिविझानकी सन्तान चलती है। आज प्रातःकाल छह बजे हम सोकर उठे हैं। रातको दस बजेसक जागेंगे और दस बजे सोकर कल सुबह फिर उठेगे, तथा कल मिति रातको दस पजे सोवेंगे। यहां आजके दस बजेतक होनेवाला प्रवृत्तिविज्ञान आज रातको दस बजे नष्ट होजावेगा । फिर भी नष्ट हुआ प्रवृत्तिविज्ञान फल प्राप्तःकाल छह बजेके प्रवृत्तिविज्ञानका उपादान कारण मान जाता है। तथा आज रातके दस बनेके बादसे पैदा हुआ भालयविज्ञान कल प्रातःकाल छह बजे तक सर्वथा नष्ट होजावेगा । ज्ञानोंकी धारा भी टूट जावेगी फिर भी नष्ट हुआ आलयविज्ञान कल रातको दस बजे बाद सोते समय होनेवाले आल्यविज्ञानका कारण है । भविष्यमें होनेवाले पुत्र या आगे होनेवाला श्रीवियोग, धनलाभ, मरण आदि पहिलेसे ही हाथमें रेखाएं बना देते हैं, या शरीरमें तिल, मसा, लहसन, आदि बना देते हैं। इनके मतसे मरे बाबा भी गुड खालेते है ऐसी कहावत ठीक है । अस्तु ये बुद्धि के समूहरूप बौद्ध जो कुछ कहे सो सुनिये ! बौद्ध कहते हैं कि जैसे नष्ट होचुके भी पहिले दिनकी जागृत अवस्थाके ज्ञानसे दूसरे दिनकी जागृत अवस्थाका विज्ञान उत्पन्न हुआ देखा गया है। उसी प्रकार नष्ट हुयी पूर्वकालकी विवक्षासे भी बुद्ध भगवान्के वचनोंकी प्रवृत्ति होना भी सम्भव है । यदि पौद्ध ऐसा कहेंगे तो आचार्य कहते हैं कि तेषां सवासनं नष्टं कल्पनाजालमर्थकृत् । कथं न युक्तिमध्यास्ते शुद्धस्यातिप्रसंगनः॥ ९१ ॥ उन बौद्धोंके यहां जीवन्मुक्तदशामें ही बुद्धके संस्कारोंसे सहित होकर नष्ट होगया विवक्षारूप कल्पनाओंका समुदाय भला कैसे अर्थोको करेगा ? अर्थात् कोई भी कार्य नहीं कर सकता है। यदि कल्पना नष्ट भी होगयी होती और उसकी वासना बनी रहती तो भी कुछ देरतक अर्थक्रिया होसकती थी किन्तु विवक्षानामक कल्पनाओंके संस्कारसहित ध्वंस होजानेपर पूर्वकालकी विवक्षासे वर्तमानमै बुद्धके वरनकी प्रवृत्ति कैसे भी युक्तिको प्राप्त नहीं होसकती है। यवि कल्पनाओंसे रहित शुद्ध पदार्थके भी वचनोंकी प्रवृत्ति मानोगे तो आकाश, परमाणु आदिके भी वचनप्रवृत्ति होजानी चाहिये । यह अतिप्रसंग होगा। यत्सवासनं नटं तम कार्यकारि यथात्मीयाभिनिवेशलक्षणं कल्पनाजालम्, सुगतस्य सुवासन नष्टै च विवक्षारयाकसनाजालमिति न पूर्वविवक्षातोश्स्य वाग्वृत्तियुक्तिमधिषसति ।
SR No.090495
Book TitleTattvarthshlokavartikalankar Part 1
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherVardhaman Parshwanath Shastri
Publication Year1949
Total Pages642
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size19 MB
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