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________________ तस्वार्थचिन्तामणिः १९५ सन्तानस्य वस्तुत्वे वा सिद्धं परमतमात्मनस्तथाभिधानात् कथंचिद्द्रव्यतादात्म्येनैव पूर्वोरक्षणानां सन्नासि सत्यामन्तरस्य व्याभिचारात्, तात्विकतानभ्युपगमाथ । यदि आप बौद्ध सन्तानको वास्तविक मानोगे तब तो दूसरे वादीके मन्तव्य यानी जैन मतकी सिद्धि हो जावेगी क्योंकि इस कारण पूर्वापर परिणामों में अखण्ड द्रव्यरूपसे रहनेवाले का नाम ही आपने सन्तान रख दिया है । एक देवदत्तके आगे पीछे होनेवाले ज्ञानपरिणामोंका संतान हो जाना कथंचित् तादात्म्य संबंध करके ही सिद्ध हो सकता है । द्रव्यप्रत्यासत्तिके अतिरिक्त क्षेत्रप्रत्यासत्ति आदि मानने से व्यभिचार आता है, कारण कि एक क्षेत्रमें पुद्गल आदिक छडों द्रव्य रहते हैं। क्षेत्रिक संबंध होनेस उन सबकी भी एक संतान बन जायेगी इसी तरहसे एककालमें अनेकद्रव्यों के परिणाम होते रहते हैं । उन भिन्न द्रव्योंके परिणामोंका भी परस्पर कालिकसंबंध है। किंतु उन सब परिणामोंकी एक अखण्ड धारारूप सन्तान नहीं मानी है । समान ज्ञानवाले भिन्न भिन्न देवदत्त, जिनवच आदिकी भावप्रत्यासत्ति है किंतु उन भिन्न आत्माओंके ज्ञानोंका परस्पर में सांकर्य नहीं है और संयोग सम्बन्धसे मी एक सन्तानकी सिद्धि नहीं है । तथा क्षेत्रसम्बन्ध, कालिकसम्बन्ध आदि वास्तविक माने भी नहीं गये हैं ये तो औपाधिक है तात्विकरूप से नहीं स्वीकार किये गये हैं । अतः संतानि - का एक द्रव्यमें कथंचित् तादात्म्य संबंध से अन्वित रहने पर ही संतान वस्तुभूत और अर्थक्रियाकारी बन सकेगी। हां अखंडित अनेक देशवाले द्रव्यका विष्कम्भकमसे माना गया स्वक्षेत्र वास्तविक है और पूर्वापर कालोंकी अनेकपर्याय ऊर्ध्वता सामान्यसे स्वकाल हो जाती हैं किंतु आकाश और व्यवहारकाल तो सर्वथा बहिरंग हैं, जीव पुद्गलोंका निज स्वरूप नहीं है । पूर्वकालविवक्षातो नष्टाया अपि तत्त्वतः । सुगतस्य प्रवर्तन्ते वाच इत्यपरे विदुः ॥ ९० ॥ बौद्ध लोग चिरकाल प्रथम नष्ट होचुके तथा भविष्यमें उत्पन्न होनेवाले पदार्थों को भी वर्त 'मानाका कारण मान लेते हैं। जिनके यहां असत् की उत्पत्ति और सदका सर्वथा नाश मान लिया गया है । वे असत् पदार्थको कारण मी मानें तो क्या आश्चर्य है ? विवक्षाके बिना सुगतके वचन कैसे प्रवृत्त होंगे? इस कटाक्षको दूर करते हुए बौद्ध कहते हैं कि पहिले कालमै कभी लगत के . इच्छा हुयी थी, वह इच्छा वस्तुतः नष्ट होगयी है। फिर भी नष्ट हुयी इच्छा को कारण मानकर बुद्ध वास्तविक रूपसे वचन प्रवृत्त हो जायेंगे इस प्रकार दूसरे सौत्रान्तिक बौद्ध मानते हैं । यथा जाग्रद्विज्ञानान्नष्टादपि प्रबुद्धविज्ञानं दृष्टं तथा नष्टायाः पूर्वविवक्षायाः सुगतस्य वाचोऽपि प्रवर्त्तमानाः संभाव्या इति चेत
SR No.090495
Book TitleTattvarthshlokavartikalankar Part 1
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherVardhaman Parshwanath Shastri
Publication Year1949
Total Pages642
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size19 MB
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