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________________ ३०६ सत्त्वार्थ चिन्तामणिः परिणामके अतिरिक्त और दूसरा क्या हो सकेगा ! तुम ही समझ लो इस कारण वह विशेषसम्बंध ही ज्ञान विशेषका कारण तुमको इष्ट करना चाहिये । उस तादात्यसम्बंधके न माननेपर विशिष्ट आस्मद्न्य ज्ञानके रहनेका या पृथिवीमें पृथिवीत्वकी वृसिताके उन ज्ञानविशेषोंका होना नहीं घटता है। नैयायिकमतमें जाति और समवायको भी इनके आधारोसे सर्वथा भिन्न माना गया है। अतः उस मिन्न पड़े हुए जातिविशेषका किसी विशेषद्रव्यमें ही समवाय सम्बंध सिद्ध नहीं हो पाता है। जब आत्मत्व और पृथिवीत्वका नियमित समवायसम्मघ सिद्ध नहीं है तो यह आत्मा है, यह पृथिवी है, यह आकाश है, इत्यादि द्रव्यों के विभाग सिद्ध न होवेगे, ऐसी दशामे आला ही ज्ञान समायसंबंधसे रहता है ऐसा " यह यहां है " इत्याकारक ज्ञान आत्माम ही ज्ञानके समवायको सिद्ध करे, किंतु फिर आकाश, काल, आदिकमै ज्ञानके समवायको सिद्ध न करे, यह भी नहीं समझा जा सकता है । अतः नैयायिकोंका चैतन्यके सम्बंध में आत्माको बेदनाना बि. सनी हो सकता है, जिससे कि श्रेयोमार्ग की अभिलाषाके अभावको सिद्ध करनेमें हमारी ओरसे नैयायिकोंके मति दिया गया अचेतनत्व हेतु असिद्ध होवे, अर्थात् नैयायिकोंकी मानी हुयी आत्माम अचेसन हो जाने के कारण मोक्षमार्गकी अभिलाषा होना नहीं बनता है। प्रतीतिः शरणं तत्र केनाप्याश्रीयते यदि । तदा पुंसश्चिदात्मत्वं प्रसिद्धभविगानतः ॥ १९७ ॥ ज्ञाताहमिति निर्णीतेः कथञ्चिच्चेतनात्मताम् । अन्तरेण व्यवस्थानासम्भवात् कलशादिवत् ॥ १९८ ।। यदि किसी भी नव्य नैयायिक या प्राचीन नैयायिकके द्वारा लोकप्रसिद्ध प्रतीतियोंकी शरण लेने का सहारा लिया जावे, तब तो आत्माको चेतनस्वरूपपना निदारहित निदोषरूपसे प्रसिद्ध है । मैं ज्ञाता इं इस प्रकारके निर्णय कथंचित् चेतनस्वरूप आत्माको माने विना व्यवस्थित नहीं होते हैं । जैसे कि जड घट, पर, आदिक "मैं ज्ञाता ई॥" में चेतन हूं " ऐसा निर्णय नहीं कर सकते हैं, किंतु आला." में ज्ञ हूं। ऐसा निर्णय कर रहा है। यह बात अनेक जीवों में स्वयं प्रसिद्ध हो रही है । ऐसी प्रतीतिसित मासको मान लेना चाहिये । प्रतीतिविलोपो हि साद्वादिभिर्ने क्षम्यते न पुनः प्रतीत्याश्रयणम्, ततो निःप्रतिद्धपयोगात्मकस्पात्मनः सिद्धेन हि जातुचिस्वयमचेतनोऽहं चेतनायोगाच्चेतनोऽचेतने च मयि चेतनायाः समवाय इति प्रतीतिरस्ति खाताहमिति समानाधिकरणतया प्रतीते। - बालगोपालों तकमें भी प्रसिद्ध होरही मतीतियोंका लोपना तो हम स्याद्वादियों के द्वारा कैसे भी सहन नहीं किया जा सकता है । हां ! फिर प्रतीतिओं के अवलम्ब लेनेका हम लोप नहीं करते
SR No.090495
Book TitleTattvarthshlokavartikalankar Part 1
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherVardhaman Parshwanath Shastri
Publication Year1949
Total Pages642
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size19 MB
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