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________________ तत्वार्थचिन्तामणिः ३०७ हैं । उस कारण से प्रतीक्षिके अनुसार उपयोगस्वरूप आत्मा की सिद्धि बाधारहित हो रही है। इस प्रकारकी प्रतीति कभी आज तक नहीं हुयी कि "मैं स्वयं तो मूलमें अचेतन हूं और चेतना बुद्धिके समवायसे चेतन हो जाता हूं, हां अचेतन होरहे मुझमें चेतनाका समवायसंबंध हो जाता है । " किंतु इसके विपरीत " में चेतन हूं " ऐसी प्रतीति हो रही है तथा “ मैं ज्ञाता हूं ऐसी ज्ञातापन और अपनेकी आत्मारूप समान अधिकरणमै ठहरे रहनेरूपसे प्रतीति हो रही है । इससे भी आत्मा स्वयं चेदन सिद्ध हो जाता है । चेतनपन, ज्ञालापन, आईपन ये तीनों एक ही आत्मा नामक अधिकरणमें निवास करते हैं । " 22 भेदे तथा प्रतीतिरिति चेन्न कथञ्चिसादात्म्याभावे तददर्शनात् यष्टिः पुरुष इत्यादिप्रतीतिस्तु भेदे सत्युपचाराद् दृष्टा न पुनस्ताविकी ! I यदि यहां नैयायिक यों कहें कि इस प्रकार समान अधिकरणपना तो भिन्न दो पदार्थोंमें हो रहा प्रतीत होता है । जैसे कि कम्बल नीला है, फूल सुगंध युक्त है। यहां कम्बल और नील का भेद है, सुगन्धसे फूल मिन्न है, ऐसे ही आमा ज्ञाता है। यहां भी भेद होनेपर ही समान अधिकरण की प्रतीति हो सकती है। निरुक्ति यों है कि समान है अधिकरण जिन दो, तीन, आदि पदार्थों का उन पदार्थोंको समानाधिकरण कहते हैं और उनका भाव समानाधिकरणता बोलीजाती है । आचार्य कह रहे हैं कि यह नैयायिकका कहना तो ठीक नहीं है क्योंकि कथवितादात्म्य सम्बंध के बिना ठीक समानाधिकरणता नहीं देखी जाती है। कम्बल और नीले स्का तथा फूल और सुगंघका अभेद होनेपर ही समान अधिकरणपन है । सर्वथा भिन्न ठहर रही अयोध्या और गिरनार पत सामानाधिकरण्य नहीं है । यद्यपि कहीं कहीं भेद होनेपर भी समान अधिकरणकी प्रतीति देखी गयी है। जैसे कि ' यष्टिः पुरुषः १ कठियात्राले पुरुषको कठिया कह देना, अथवा ardhars और इक्के वालेको टोपी या इक्का से पुकारना होता है इत्यादि, किंतु यहां मेद होते संते केवल व्यवहारसे समानाधिकरणप्रतीति इष्ट को है । हां फिर परमार्थरूप से ककड़ी और ककडीवालेमै समानाधिकरणता नहीं देखी गयी है। लठियाका अधिकरण पुरुष है और पुरुषका अधिकरण है। यों तो 'अर्माणवकः ' चंचल क्रोधी बालकको अभि कह देते हैं। बोझ ढोनेवाले पल्लेदारको बैल कह देते हैं 'गौर्शहीक: ' यह सब उपचार है । अतः कथञ्चित् भिन्न और कथंचित् अभिल होरहे पदार्थ में समानाधिकरणत्व माना गया है । आत्मा और ज्ञानमें द्रव्यरूपसे अमेद है और पर्याय, पर्यायीपनसे भेद है। यही तो समानाधिकरण होनेका प्राण है || I तथा चात्मनि ज्ञाताहमिति प्रतीतिः कथञ्चिच्चेतनात्मतां गमयति, वामन्तरेणानुपपद्यमानत्वात् कलशादिवत् । न हि कलशादिरचेतनात्म को ज्ञाताहमिति प्रत्येति । हां तो उस कारण से आत्माने " में ज्ञाता हूं" ऐसी प्रतीति हो रही है वह कथञ्चित् चेतनात्मकताको सिद्ध करा देती है क्योंकि आत्माको पैसा चेतनस्वरूप माने बिना वह प्रतीति होना
SR No.090495
Book TitleTattvarthshlokavartikalankar Part 1
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherVardhaman Parshwanath Shastri
Publication Year1949
Total Pages642
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size19 MB
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