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________________ १०८ तत्वार्थचिन्तामणिः I नहीं बन सकता है । जैसे घट, पट आदिकने वैसी ज्ञप्ति नहीं होती है । वे घट, पट आदिक स्वयं वेतन न होनेके कारण हम ज्ञाता है " ऐसी प्रतीति नहीं करते हैं | 61 चैतन्ययोगाभावादसौ न तथा प्रत्येतीति चेत्, चेतनस्यपि चेतनायोगाच्चेतनोऽमिति प्रतिपचैर्निरस्वत्वात् । यदि नैयायिक यों कहें " कि चैतन्यका संबंध होनेके कारण वे घट, पट आदिक अपनेको ज्ञापनकी वैसी प्रतीति नहीं करते हैं किंतु आत्मा चैतन्यके योगले ज्ञातापने की मतीति कर लेता है " ऐसा कहनेवर तो हम जैन कहते हैं कि चेतन आत्मा के भी चेतन्यगुणेक' समवाय संबंध में चेतन हूं ऐसी प्रतिपत्ति होने का हम खण्डन कर चुके हैं। चैतन्यके संबंध से चैतन्यवान् प्रतीति मर्ले दी हो जाय किंतु चेतन हूं i. " यह प्रतोति नहीं होती है। फिर आप बार बार उसी बातको क्यों दुहराते हैं । वावदूकता अच्छी नहीं लगती है। I ननु च ज्ञानवानदमिति प्रत्ययादात्मज्ञानयोर्भेदोऽन्यथा धनवानिति प्रत्ययादपि धनवद्वतोर्भेदाभावानुषङ्गादिति कश्चित् तदसत् । नैयायिक सर्शक स्वपक्षका अवधारण करते हुए कहते हैं कि मैं ज्ञानवाला हूं, इस प्रकार - के निर्णयले तो आत्मा और ज्ञानने मेद प्रतीत हो रहा है । मतु प्रत्यय भेद हुआ करता है । यदि ऐसा न मानकर अन्य प्रकार मानोगे तो देवदत्त धनवाला है, इस प्रतीसिसे भी धन और धनवाका भेद नहीं हो सकनेका प्रसंग आवेगा | आचार्य कहते हैं कि इस प्रकार कोई एक नैयायिक कह रहा है। उसका वह कहना प्रशंसनीय नहीं है। जब कि ज्ञानवानहमित्येष प्रत्ययोऽपि न युज्यते । सर्वत्र जडस्यास्य पुंसोऽभिमनने तथा ॥ १९९ ॥ सर्वथा भेद होनेपर तो मतुप् प्रत्यय भी नहीं उतरता है। तभी तो विन्ध्यपर्वतवान् सह्य पर्वत है या पुण्यवान् आकाश है, ये प्रयोग सत्य नहीं माने गये हैं। यदि इस आत्माको सर्व प्रकार से ही जड़ है यों आग्रहसहित माना जावेगा। वैसे तो मैं ज्ञानवान् हूं यह उस प्रकारकी प्रतीति होना भी युक्तिपूर्ण नहीं है । ज्ञानवानमिति नात्मा प्रत्येति जडत्वकांतरूपत्वाद् घटवत् सर्वथा जच्च स्थात् आरमा ज्ञानवानहमिति प्रत्येता च स्वाद्विशेवाभावादिति मा निरणपीस्तस्य तथोपपत्त्यसम्भवात् । तथाहि 41 मैं ज्ञानवान हूं " इस बातको आत्मा नहीं जान सकता है क्योंकि न्यायमत घटके समान आत्माको एकांतरूपसे अस्वरूप माना गया है। वैशेषिकने आत्मा में आत्मत्वजाति और >
SR No.090495
Book TitleTattvarthshlokavartikalankar Part 1
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherVardhaman Parshwanath Shastri
Publication Year1949
Total Pages642
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size19 MB
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