SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 625
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ तत्वार्थचिन्तामणिः वाचक है | एवं न कोई किसीका आधार है और न कोई आधेय है । इत्यादि वास्तवमे विचारा जावे तो उक्त ग्राह्यग्राहकमाव आदि कोई सम्बन्ध भी खो नहीं है। कहां मिट्टीका घडा और कहां चेउन ज्ञान तथा कहां घट शह और कहां पड़ा एवं ऊर्ध्वलोक, अपोलोक ( आकाश, पाताल ) के अन्तर भी बहुत बडा अन्तर है । एवं इनका सम्बन्धी भी कोई नहीं है । इस प्रकार माननेवाला बौद्ध भी इस कहे हुए अनेकान्तकी सिद्धिसे स्खण्डित कर दिया गया है । अत् शून्यवाद, उपप्लववाद के समान ज्ञानाद्वैतकी सिद्धि भी अनेकान्तका आश्रय लेनेपर ही हो सकेगी। I ६१९ आह्यग्राहकवाध्यचाधककार्यकारणवाच्यवाचकभावादिस्वरूपेण नास्ति सम्वेदनं संविन्मात्राकारपदस्योत्यनेकान्डोमीट एवं संवेदवाइयस्य वचैव व्यवस्थितेर्ब्राह्माद्याकाराभावात्सद्वितीयतानुपपतेः सर्वथैकान्ताभावस्य सम्यगेकान्यानेकान्ताभ्यां तृतीयानुपपत्तिवत् । इति न प्रातीतिकं, ब्राह्मग्राहकभावादिनिराकरणस्यैकान्ततो ऽसिद्धेः । बौद्ध कहता है कि ग्रहण करने योग्य, और गृहीतिका करण, या पाधा होने मोम्य, और बाधक, तथा करने योग्य, और कारण, एवं जो कहा जावे और जिस शब्दके द्वारा कहा जावे वह शब्द, या आधार और आधेय आदि स्वभावों करके संवेदन नहीं है तथा केवळ शुद्ध संवित्तिके आकार करके सेवेदन है। इस प्रकार इमको अनेकांत इष्ट दी है। वैसा करनेपर ही अद्वैत संवेदन की व्यवस्थापूर्वक सिद्धि हो सकेगी। ग्राह्य आदि आकारोंके न होनेसे ही दूसरेसे सहितपनेकी सिद्धि नहीं हो पाती है। भावार्थ --- अनेकांत के माननेपर ग्राह्य आदि आकारोंसे रहित होकर अकेला संवेदनाद्वैत सिद्ध हो सकेगा | अनेकांतकी शरण लिये विना ग्राह्यग्राहक आदि अंशोंसे रहित संवेदन शुल्यरूप ही हो जायेगा | हमको संवेदनकी अद्वितीयता अक्षुण्ण रखनी है। द्वितीयसे सहितपने की सिद्धि नहीं रखनी है। आपके यहां जैसे कि सर्वभा एकांठोंका अभाव समीचीन एकांत और समीचीन अनेकांत से तीसरा कोई पदार्थ सिद्ध नहीं है । भावार्थ- सर्वथा एकांतों के अभाव करनेसे आपका अनेकांत बन बैठता है । वैसे ही माह्य आदिके अमावसे हमारा संवेदनाद्वैत बन जायेगा । अब आचार्य कहते हैं कि आपका एकांतसे माना हुआ ऐसा निरंश संवेदन तो प्रमाणप्रसिद्ध प्रतीतियों से नहीं जाना जाता है | अतः असत् है । क्योंकि सर्वथा एकांतरूपसे माझ ग्राहकमा कार्यकारणभाव आदिका निराकरण करना भी सिद्ध नहीं हो पाता है। ग्राह्यग्राहकशून्यत्वं ग्राह्यं तदग्राहकस्य चेत् । ग्राह्यग्राहकभावः स्यादन्यथा तदशून्यता ॥ १४९ ॥ ग्राह्यग्राहक भावसे रहितपनेको यदि उसके प्रहण करनेवाले ज्ञानका ग्राह्य मानोगे, सब सो मामा ही भाग या अर्थात् माहाग्राहकमा वसे रहिखपना ग्राह्य, यानी विषय हो गया और उसको जाननेवाला ज्ञान, ग्राहक यानी विषय हो गया । अभ्यथा। उस मायमादक भावसे शून्यपन
SR No.090495
Book TitleTattvarthshlokavartikalankar Part 1
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherVardhaman Parshwanath Shastri
Publication Year1949
Total Pages642
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size19 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy