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तत्वाचिन्तामणिः
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किया है कि प्रकृष्ट दर्शन यानी क्षायिकसम्यक्त्व और प्रकृष्टलान यानी केवलज्ञानकी अपेक्षासे पूर्ववती होकर क्षायिकसम्यक्षको पूज्यता है । क्षायिक सम्यक्स्वके होनेपर ही क्षायिकशान हो सकता है । मविष्य में होनेवाले अनेक भवोंका ध्वंस क्षायिक सम्यग्दर्शनसे हो आता है वैसे ही पूर्ण ज्ञान भी पूर्णचारित्रसे प्रथम हो जाता है । चौदहा गुणसानके अंतमें होनेवाले व्युपरतक्रियानिवृति ध्यानके होनेपर ही पूर्णचारित्र कहलाता है । सम्यक् शब्दको तीनों गुणों में लगा देना चाहिये । इसका विशेष प्रयोजन है। सूत्रकार उमास्वामी महाराजने विशेष कारणोंकी अपेक्षासे ही मोक्षके तीन कारणों का वर्णन किया है । मोक्षके सामान्य कारण तो और भी हैं । विशेष कारण ये रसत्रय ही हैं । अतः पहिले उद्देश्य दलमे एवकार लगाना अच्छा है। चार आराधनाओं में गिनाया गया तप मी चारित्ररूप है। तेरहवे गुणवानके मादिम रखत्रयके पूर्ण हो जानेपर मी सहकारी कारणों के न होनेसे मोक्ष नहीं होने पाती है। किसी कार्यके कारणोंका नियम कर देनेपर मी शक्तिविशेष मौर विशिष्ट कालकी अपेक्षा रही आती है वह चारित्रकी विशेष शक्ति अयोगी गुणस्थान के अंत समयमें पूर्ण होती है । नैयायिकोंकी मोक्षमार्ग प्रक्रिया प्रशस्त नहीं है । सञ्चित कोंका उपमोग करके ही नाश माननेका एकांत अच्छा नहीं है। सांख्य और चौद्धोंकी मोक्षमार्गपक्रिया भी समीचीन नहीं है । दर्शन, ज्ञान, और चारित्र, गुण कथञ्चित् भिन्न भिन्न हैं। इनमें सर्वथा अभेद नहीं है। इनके लक्षण और कार्य न्यारे न्यारे हैं । पहिले गुणोंके होनेपर उत्तरके गुण माज्य होते हैं। उच्चर पर्यायकी उत्पति होनेपर पूर्वपर्यायका कथंचित् नाश होजाना इष्ट है। तीनों गुणों के परिणामोंकी धारामै पृथक पृथक् चलती हैं । इन गुणोंकी कभी विभावरूप और कभी स्वभावरूप तथा कभी सदृश स्वभावरूप पर्याय होती रहती है । एक गुणकी पर्यायोंका दूसरा गुण उपादान कारण नहीं हो सकता है। पूर्वस्वभावोंका त्याग, उत्तर-स्वभावोंका ग्रहण और स्थूलपने ध्रुव रहनेको परिणाम कहते है । कूटस्थ पदार्थ असत् है । उपादान कारण होनेपर भी सहकारी कारणों के विना कार्यकी उत्पत्ति नहीं होने पाती है । जैसे कि बारहवे गुणस्थानके आदिमें मोहनीय कर्मका मष होचुका है। किंतु शेष दो, और चौदह वासियों के नाश करनेकी शक्ति बारहवेक उपान्त्य और अन्तिममें ही होती है । वैसे ही बचे हुए नाम आदि कोंके ध्वंसकी शक्ति अयोगीके उपान्त्य और अन्तिम समयमे इष्ट की है। चारित्रगुणकी पूर्ण परिपकता यही होती है। सम्यग्दर्शनमें परमावगाढपना मी यहीं पर होता है । इसके आगे संसारके कारणोंको ग्रंथकारने सिद्ध किया है। मोक्षके कारण तीन हैं। इससे सिद्ध होता है कि उनसे विपरीत मिध्यादर्शन, मिथ्याज्ञान और मिथ्याचारित्र ये तीन संसारके कारण हैं। नैयायिक, सांख्य आदिसे माना गया अकोला मिख्याजान ही संसारका कारण नहीं है। यदि मिय्याज्ञानसे ही संसार और सम्यग्ज्ञानसे ही मोक्ष मानी जायेगी तो सर्वज्ञ देव उपदेश देनेके लिये कुछ दिनोंतक संसारमें नहीं ठहर सकेंगे। इस अवसरपर नैयायिकको छकाकर संसारके कारण तीनों ही सिद्ध करदिये हैं