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________________ तत्वार्थचिन्तामणिः सिद्ध करनेमें अच्छा विचार हो चुका । अब पुनः पुनः आप सांख्य ज्ञानस्वभावका खण्डनकरने के लिये जो युक्तियां देते हैं, वे निस्तत्त्व, पुनरुक्त और पोच हैं । अतः अधिक प्रपञ्च चढाने से आपका कोई प्रयोजन सिद्ध न होगा । आत्मा के ज्ञानोपयोग और दर्शनोपयोग दोनोंही आत्मीय स्वभाव है । प्रतिवादियोंका प्रत्याख्यान करते हुए अबतक यह बात विस्तार के साथ सिद्ध हो चुकी हैं। ३६९ संसारव्याधिविध्वंसः कचिज्जीवे भविष्यति । तन्निदानपरिध्वंससिद्धेरविनाशवत् ॥ २४५ ॥ तत्परिध्वंसनेनातः श्रेयसा योक्ष्यमाणता । पुंसः स्याद्वादिनां सिद्धा नैकान्ते तद्विरोधतः ॥ २४६ ॥ I ग्रंथ के आदिमें तीसरी वार्तिकद्वारा पहिले सूत्रकी प्रवृत्तिका कारण उपयोगस्वरूप और कल्याणमार्ग से भविष्य में संसर्ग करनेवाले आलाकी समझनेकी इच्छा होना बतलाया गया 1 तिनमै पहिला यानी आत्माको ज्ञानस्वभाववाला सिद्ध कर दिया जा चुका है। अब आस्माका कल्याणमार्ग से संबंध हो जानेकी जिज्ञासाको अनुमानद्वारा सिद्ध करते हैं। किसी न किसी विवक्षित आत्मामें संसार के सर्वदुःखों का विनाश हो जावेगा ( प्रतिज्ञा ) क्योंकि आदिकारण ज्ञानावरण आदि कमौका रत्नत्रय से प्रागभावका असमानकालीन परिक्षय होना सिद्ध हो रहा है ( हेतु ) जैसे कि ज्यरकुंश, कुटकी, चिरायता आदिसे ज्वरके कारणोंके नाश हो जानेपर जडसहित ज्वरका नाश हो जाता है । ( अन्वयदृष्टांत ) इस कारण उस संसारकी व्याधियोंके नाश हो जानेसे आत्माका कल्याण मार्ग से भविष्यमै सम्बन्धित हो जाना सिद्ध हो जाता है । स्वावादियों के मत परिणामी आमाके यह बात बन जाती है । नित्य एकांत या अनित्य एकांत में पहिलेके दुःखी आत्माका वर्तमान में सुखी हो जानापन नहीं बनता है क्योंकि विशेषदोष आता है। जिस सांख्यक मतमें कूटस्थ नित्य आत्मा माना है वह सर्वदा एकसा ही रहेगा। बौद्धमतेन प्रतिक्षण बदलता ही रहेगा। जो दुःखी था वही सुखी न हो सकेगा । दुःख एकका है तत्त्वज्ञान दूसरेको, और मोक्ष तीसरेको होंगी । तथा च एकांतवादियोंको जैनमतानुसार परिणामी नित्य आत्मा के माननेपर अपने मंतव्योंसे विशेष हो जावेगा । सन्नप्यात्मोपयोगात्मा न श्रेयसा योक्ष्यमाणः कश्चित् सर्वदा रागादिसमाक्रान्तमानसत्वादिति केचित्सम्प्रतिपद्मा तान्प्रति तत्साधनमुच्यते । आत्मा ज्ञानदर्शनोपयोगस्वरूप होकर विद्यमान रहता है । ऐसा होते हुए भी कोई आत्मा मोक्षमार्ग से सम्बन्धित हो जासके, यह जैनोंका सिद्ध करना ठीक नहीं है। क्योंकि सभी आत्माओं के 47
SR No.090495
Book TitleTattvarthshlokavartikalankar Part 1
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherVardhaman Parshwanath Shastri
Publication Year1949
Total Pages642
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size19 MB
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