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मार्गचिन्तामणिः
भले ही आप सांख्योंका यह भी मन्तव्य होवे कि बुद्धिके द्वारा निर्णीत किये गये अर्थका आलोचन करना पुरुषका चैतन्य करना नहीं है । क्योंकि अर्थका वह संचेतन करना या दर्शन करना तो आस्माका स्वभाव है, यह प्रमाणोंसे सिद्ध कर दिया गया है। आचार्य कहते हैं कि सो वह मन्तव्य भी सांख्योंको अपने चित्तने नहीं विचारना चाहिये, क्योंकि ऐसा मानने पर तो ज्ञानको भी आत्माका स्वभाव होना सिद्ध हो जाता है। दर्शन और ज्ञान एक ही वैलीके चट्टे बट्टे हैं । सम्पूर्ण विषयोंका में ही भोक्ता हूं, मेरे सिवाय कोई इनका अधिकारी नहीं है ऐसा अभिमानरूप "मैं मैं " इस प्रकार आत्मगौरव के साथ आत्माका अर्थनिर्णय करना तो जड प्रकृतिकी बनी हुयी बुद्धि नहीं है। प्रत्युत वह बुद्ध चेतन आत्माका स्वभाव है। ऐसा स्वयंत्रेदन प्रत्यक्ष से प्रतीत हो रहा है। इस प्रतीति का कोई बाधक प्रमाण नहीं है । इस प्रकार दर्शन और ज्ञान दोनों उपयोगोंको आत्माका स्वमावपना ही प्रसिद्ध होता है, सो आप मानलो । दर्शनको आमाको स्वाद माना जा बीर ज्ञानको प्रकृति धर्म कहा जावे आपके इस कथनमें कोई विशेषता नहीं पायी जाती है।
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ननु व नश्वरज्ञानस्वभावत्वे पुंसो नश्वरत्वमसंगो बाधक इति चेत् न, नश्वरत्वस्य नरेsपि कथचिद्विरोधाभावात् पर्यायार्थतः परपरिणामाक्रान्ततावलोकनात् । अपरिणामिनः क्रमाक्रमाम्यामर्थक्रियानुपपत्तेर्व स्तुत्वहानिप्रसंगानित्यानित्यात्मकत्वेनैव कथञ्चि दक्रियासिद्धिरित्यलं प्रपचेन । आत्मनो ज्ञानदर्शनोपयोगात्मकस्य प्रसिद्धेः ।
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शंकाकारकी मुद्रा बनाकर स्वपक्षका अवधारण करते हुए सांख्यज्ञानको आत्माका स्वभाव सिद्ध करनेवाली प्रतीतिमै बाधक उपस्थित करते हैं कि यदि उत्पाद विनाश होनेकी लत रखनेवाले ज्ञानको आत्माका स्वभाव होना माना जावेगा तो आत्मासे अमिन माने गये ज्ञानके समान आत्माको भी नाशशील होनेका प्रसंग होवेगा । यही आमाको ज्ञानस्वभाव सिद्ध करनेवाली प्रतीतिका गावक है । ग्रंथकार कहते हैं कि यह कहना तो ठीक नहीं है। क्योंकि कथञ्चित् नाश होनापने स्वभावका आत्मामें मी कोई विशेष नहीं है । पर्यायार्थिक नयसे वही एक आत्मा भिन्न भिन्न दूसरी अनेक पर्याय व्याप्त होता हुआ देखा जा रहा है। आत्मा द्रव्य नित्य है । उसकी अभिन्न पर्याय उत्पाद विनाशचाली हैं । एक ज्ञान नष्ट होता है, दूसरा ज्ञान उत्पन्न होता है। युवावस्था नष्ट होती है और वृद्धावस्था उत्पन्न होती है । मनुष्यपर्ययका नाश होकर देवपर्यय उत्पन्न हो जाती है। यदि आत्माको कूटस्य अपरिणामी माना जायेगा तो उसकी क्रमसे होनेवाली और साथ होनेवाली अनेक अर्थक्रियाएं नहीं बन सकेंगी। इस कारण अर्थ किया के बिना आत्माका वस्तुपना ही नष्ट हो जावेगा। यह वस्तुस्वकी हानिका प्रसंग न होवे, इसलिये कथञ्चित् नित्य और अनित्य स्वरूपपनेसे ही आपके देखना, जानना, मोगना आदि अर्थक्रियाओंकी सिद्धि हो सकती है। आत्माको ज्ञानस्वभाव
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