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________________ ૭૦ तत्त्वार्थचिन्तामणिः अन्तःकरण राग, द्वेष, मोह आदिकसे सदा ही भरे रहते हैं । जिन आत्माओं का मन कोष, प्यार, मूढता से परिपूर्ण हो रहा है वे दूषित आत्मायें भला मोक्षमार्गसे कैसे तदात्मक बन सकेंगे, इस प्रकार कोई कोई प्रतिवादी समझ बैठे हैं। उनके प्रति जीवोंका मोक्षमार्ग में लग जानेको सिद्ध करनेवाला हेतुसहित अनुमान कहा जाता है । श्रेयसा योक्ष्यमाणः कश्चित् संसारव्याधिविध्वंसित्वान्यथानुपपत्तेः । श्रेयोऽत्र सकलदुःखनिवृत्तिः, सकलदुःखस्य च कारणं संसारख्याधिस्तद्विध्वंसे कस्यचित्सिद्धं श्रेयसा योक्ष्यमाणत्वम् तलक्षण कारणानुपलब्धेः । t - J कोई आत्मा ( पक्ष ) कल्याणमार्ग से युक्त होनेवाला है ( साध्य ) क्योंकि संसाररूप व्याधियोंका नाश करनेवालापन हेतु इस साध्यके व अन्यप्रकार बन नहीं सकता है । भावार्थ – संसार के दुःखोंका नाशकपना हेतु मोक्षमार्ग से युक्त होनेवाले साध्यके साथ अविनाभाव सम्बन्ध रखता है । इस अनुमानमें कल्याणका अर्थ शारीरिक, मानसिक, चेतन, अचेतमकृत और कर्मकृत सम्पूर्ण दुःखोंकी निवृत्ति हो जाना है तथा सम्पूर्ण दुःखोंका कारण जीवका पचपरावर्तनरूपसे संसरण करना - स्वरूप व्याधि है । उसके कारण मिध्यादर्शन, अज्ञान, 1 असंयम और कषाय है । संसारके इन प्रधान कारणोंका सम्यग्दर्शन, ज्ञान चारित्रसे जब नाश कर दिया जाता है तो संसाररूप व्याधिका भी नाश हो जाता है । और उस संसाररूप व्याधिके नष्ट हो जानेपर किसी आत्माका सम्पूर्ण दुःखोंकी निवृत्तिरूप कल्याणसे संयुक्त हो जाना भी सिद्ध हो जाता है । उस संसारव्याधिरूप कारणकी अनुपलब्धि हो जाने से कल्याणमार्ग से हम जानारूप साध्यकी सिद्धि हो जाती है । पहिले अनुमानमें कारणके नाशसे संसारख्या विश्वरूप- कार्यका नाश सिद्ध किया है | यहां क्षयका अर्थ निषेध किया जावे तो हेतु अविरुद्ध कारणानुपलब्धि - स्वरूप है । अथवा क्षयको भावकार्यं माना जावे तो अविरुद्ध कारणोपलब्धिरूप हेतु है । और दूसरे अनुमानमें व्याधिध्वंस हेतुसे कल्याणसम्बन्धीपना सिद्ध किया है, यह हेतु विरुद्ध कारणानुपलब्धि रूप है। यदि ध्वंसको भावरूप माना जावे तो पूर्ववत् अविरुद्धकारणोपलब्धि स्वरूप है । I न च संसारख्याधेः सकलदुःखकारणत्वमसिद्धं जीवस्य पारतन्त्र्य निमित्तत्वात् । पारतन्त्र्यं हि दुःखमिति । एतेन सांसारिकसुखस्य दुःखत्वमुक्तं स्वातन्त्र्यस्यैव सुखत्वात् । संसाररूपी रोगको सकल दुःखों का कारणपमा असिद्ध नहीं है क्योंकि कनोंके आधीन चारों गतियोंमें परिभ्रमण करनारूप संसार ही जीवकी परतन्त्रताका कारण है और पराधीनता ही निम्बयसे दुःख है । इस प्रकार संसाररूप-रोग ही सम्पूर्ण दुःखों का कारण सिद्ध हुआ । इस समर्थन से संसारमें होनेवाले इंद्रियजन्य क्षणिक सुखोंको दुःखपना कह दिया गया है। क्योंकि वास्तवमै स्वतं "
SR No.090495
Book TitleTattvarthshlokavartikalankar Part 1
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherVardhaman Parshwanath Shastri
Publication Year1949
Total Pages642
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size19 MB
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