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________________ १९८ तत्त्वार्थचिन्तामणिः साथ होने पर ही आती है। अतः सत्त्वज्ञानका अर्थ सम्यग्दर्शनसहित तत्त्वज्ञान है । चारित्ररूप वैराग्यको आप कण्ठोक मानते ही हैं । तथाच ज्ञान और वैराग्यसे ही मोक्षकी प्राप्ति मानना रत्नत्रयसे ही मोक्ष होना स्वीकार करना है। तत्त्वज्ञान मिथ्याभिनिवेशरहित सदर्शनमन्वाकर्षति, वैराग्यं तु चारित्रमेवेति रत्नत्रयादेव मुक्तिरित्यवधारणं बलादवस्थितम् । मिथ्याश्रद्धानसे रहित ओ तत्वोंका ज्ञान होमा, वही तत्त्वज्ञान समझा जावेगा । जैसे प्रोत्र इंद्रियजन्य मतिज्ञानवाले जीवके चक्षुरिन्द्रियजन्य ज्ञानकी लब्धि होना आवश्यक है, वैसे ही तत्त्वोंका ज्ञान सम्यदर्शनका अविनाभाव रूपसे आकर्षण कर लेता है और वैराग्य सो चारित्र है ही। इस प्रकार रलायसे ही मोक्षकी प्राति है, यह नियम काना बलात्कारसे सिद्ध हो जाता है। इसमें आनाकानी नहीं कर सकते हो। " दुःखे विपर्यासमतिस्तृष्णा वा बंधकारणम् । जन्मिनो यस्य ते न स्त्रो न स जन्माधिगच्छती "त्यप्यर्हन्मतसमाश्रयणमेवानेन निगदितम् , दर्शनशानयोः कथन्धिद्भेदामतान्तराशि जिस प्रतिवादीने ज्ञान और पैराग्यको ही मुक्तिका मार्ग माना है, उस योगका यह सिद्धांत है कि शरीर, धन, सांसारिक भोग, आदि दुःखरूप पदार्थों में सुख माननारूप विपरीत बुद्धि करना अविद्या है और भोग, उपभोगोंमें आसक्ति करना अथवा उनकी भविष्यके लिये अमिलामा करना तृष्णा है । संसारी जीवकी अविधा और तृष्णा उसके बंधका कारण है। संसारमें जन्म और मरण करनेवाले जिस जीवके ज्ञान और वैराग्य उत्पन्न हो जाने पर वे अविद्या और तृष्णा नहीं रहते हैं, वह जीव पुनः जन्म मरणको प्राप्त नहीं होता है अर्थात् मुक्त हो जाना है। इस प्रकार कहनेवाले योग मतानुयायियोंने तो श्रीत देवके प्रतिपादन किये गये मतका ही फिर माश्रय ले लिया है । इस उक्त कथनसे ऐसा ही निरूपण किया गया प्रतीत होता है। क्योंकि सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञानस्वरूप विद्याका कञ्चित् मेद है और अनेक अंशों में अभेद है। अतः विद्या कहनेसे दोनों गुण कहे गये । चारित्र उन्होंने माना ही है । अतः रलायसे ही मोक्ष होना कहा गया । एतावता स्यावाद सिद्धांत के अतिरिक्त अन्यमत्तोंकी सिद्धि नहीं होने पाती है। पोत काक न्यायसे सबको रलायकी शरण लेने के लिये ही बाध्य होना पड़ेगा। इस प्रकरणको समाप्त कर एक द्रव्यके भी शक्तिस्वरूप अनेक गुण भिन्न होते हैं, इस बातको छेडते हैं। न चात्र सर्वयेकवं ज्ञानदर्शनयोस्तथा । कथञ्चिद्भेदसंसिद्धिलक्षणादिविशेषतः॥ ५७ ॥
SR No.090495
Book TitleTattvarthshlokavartikalankar Part 1
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherVardhaman Parshwanath Shastri
Publication Year1949
Total Pages642
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size19 MB
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