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________________ तस्वाचिन्तामणिः १९९ ...manmaina .vomni.mm.rrmun.xmubmisartant .....' इस सूत्रमें पड़े हुए शान और दर्शन गुणका सर्वथा एकमना सिद्ध नहीं है। क्योंकि उसी प्रकारसे लक्षण, संझा, प्रयोजन आदिकी विशेषताओंसे ज्ञान और दर्शनमें किसी अपेक्षासे मेदकी समीचीन रूपसे सिद्धि हो रही है। न हि भिन्नलक्षणवं भिन्नसंज्ञासंख्याप्रतिभासत्वं वा कथञ्चिद्भेदं व्यभिचरति, तेजोमसोर्मिनलक्षणयोरेकपुद्गलद्रव्यात्मकत्वेपि पर्यायार्थतो भेदप्रतीतेः । शक्रपुरंदरादिसंज्ञाभेदिनो देवराजार्थस्यैकत्वेऽपि शकनपूर्दारणादिपर्यायतो भेदनियात् । जलमाप इति भिन्नसंख्यस्य तोयद्रव्यस्यैकत्वेऽपि शक्त्यैकत्वनानात्वपर्यायतो भेदस्यापतिहतत्वात् । __ भिन्न भिन्न लक्षण होना, अथवा पृथक् पृथक् संज्ञा होना, समा विशेष विशेष संख्या होना एवं निराली निराली ऋति होना, ये हेतु कथञ्चित् भेदस्वरूप साध्यके साथ व्यभिचार नहीं करते हैं। देखिये ! अमि और जल दोनों उष्ण स्पर्श तथा शीत स्पर्शरूप भिन्न लक्षणवाले हैं। भले ही वे एक पुद्गल द्रव्यस्वरूप है तो भी पर्यायार्थिक नयसे भमि और अलमें प्रत्यक्षप्रमाणसे भेदकी प्रतीति हो रही है। पुद्गल पड़ी जब जल पर्याय न गि पर्याय नहीं है। हां ! कालांतरमें चूक्षमें अल जाकर जब काष्ठरूप परिणत हो जायेगा और जलाने पर उस काठकी अनि यन सकती है। एवं पुद्गलकी अमि पर्यायके समय जल पर्याय नहीं है। हां! अभिसे वायु फिर जल बन सकता है । इसमें देर लगेगी । अतः मिन्नलक्षणबसे पदार्थोंका भेद सिद्ध हो जाता है । प्रकृतमे तत्त्वोंका श्रदान करना सम्यग्दर्शनका लक्षण है और तत्त्वोंको नहीं कमती बढ़ती स्वरूपसे ठीक जान लेना सम्याज्ञान है। इस प्रकार भिन्नलक्षण होनेसे दोनों गुणों में भेद है। इंद्रके वाचक अनेक शब्द हैं। शुक्र, पुरंदर, शचीपति, वज्री, सुरपति आदि. भिन्न संज्ञाये न्यार्थिक नयसे देवोंके राजारूप एक ही मघवा अर्थके वाचक है। फिर भी एक द्रव्यमे अनेक गुण और पर्याय विद्यमान रहती हैं। अतः जम्बूद्वीपको परिवर्तन करनेकी शक्तिको धारण करने वाले इंद्रको शक कहते हैं और पौराणिक सम्प्रदायसे नगरीका ध्वंस करनेवाले इंद्रको पुरंदर कहते हैं। ऐसे ही पुलोमजाके पति या वजधारण करनेसे इंद्रको शचीपति और वजी कहते हैं। ये परम ऐश्वर्य, अत्यधिकवल, वजधारण आदि पर्याय निराली हैं। तभी तो उनके वाचक शब्द भिन्न माने गये हैं। यों न्यारी पर्यायोंसे मेदका निश्चय हो रहा है । अतः भिन्न संज्ञा होना भी भेदका साधक है। वह भिन्न संज्ञापन सम्यग्दर्शन और सम्याज्ञान गुणों में भी विद्यमान हैं। अतः ये दोनों गुण भी कथञ्चित् भिन्न हैं। यह ध्यान रखना कि जिस शक्ति या पर्यायको अवलम्ब लेकर अनेक संज्ञायें रखी गयी है। द्रव्यों एवम्भूत नयके विषय वे स्वभाव न्यारे ही हैं। कल्पित या भ्रष्ट शब्दोंको छोड़
SR No.090495
Book TitleTattvarthshlokavartikalankar Part 1
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherVardhaman Parshwanath Shastri
Publication Year1949
Total Pages642
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size19 MB
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