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________________ तत्वार्थचिन्तामणिः ffer] रखता है इस प्रकार आपका जगत्के हितकी अभिलाषा रखनारूप हेतु खड्गी में सिद्ध नहीं है । जगत्के भीतर खड्गी भी आगया है । जिस जंगलका हित करना है, उन जीवोमें अकृतकृत्य ही जीव लिये जायेंगे । १९० 'नापि चरमत्वं प्रमाणाभावात् । खड्गीका चित्त दूसरे चित्तको उत्पन्न नहीं करता है। इस आपकी प्रतिज्ञामें दिये गये हेतुका अन्तिमपना विशेषण भी सिद्ध नहीं है। क्योंकि खड्गीके चितोंका कहीं अन्त होजाता है, इसमें कोई प्रमाण नहीं है । जब कि सब ही पदार्थ अनन्तकालतक परिणमन करनेके स्वभाववाले है । घट, पट, आदिके स्वलक्षण और बुद्धोंके चित्र अनन्तकाललक परिणमन करेंगे तो खड्गीके चितकी भी उत्तरोतर धारा उत्पन्न होती रहेगी, दीपककी कलिका भी काजलको उत्पन्न करती है और काजलसे उत्तरोत्तर काजल, वर्गणा, परमाणु, आदि पर्यायें होती रहती हैं । अतः दीपकलिकाका दृष्टान्त विषम है। कलिका और काजल तत्वान्तर नहीं हैं किन्तु रूप, रस आदिवाले पुल द्रव्यकी पर्यायें हैं। पीले रंगसे काला रंग होगया है । उष्णस्पर्शसे शक्तिस्पर्श होगया है किन्तु पुद्गलतत्त्व नहीं बदला है। चरमं निरास्रवं खड्गचितं स्वोपादेयानारम्भकत्वाद्वर्तिनेहा दशून्य दीपादिक्षणवदिति चेत्, न अन्योन्याश्रयणात् । सति हि तस्य स्वोपादेयानारम्भकत्वे चरमस्वस्य सिद्धिस्तत्सिद्धौ च स्वोपादेयानारम्भकत्व सिद्धिरिति नाप्रमाणसिद्ध विशेषणो हेतुर्विपक्षवृत्तिश्च । खड्गि सन्तानस्यानन्तप्रतिषेधाया लं येनोत्तरोत्तरैष्यच्चित्तापेक्षयात्मानं शमयिष्यामीत्यभ्यासविधानात्स्वचित्तकस्य शमनेऽपि तत्सन्तानस्यापरिसमाप्तिसिद्धेर्निरन्वयनिर्वाणाभावः सुगतस्येवानन्तजगदुपकारस्य न व्यवतिष्ठेत तथापि कस्यचित्प्रशान्तनिर्वाणे सुगतस्य तदस्तु । द्ध इस अनुमानसे चरमपना सिद्ध करेंगे कि " खङ्गिका आसवरहित चिच अन्तिम है ( प्रतिज्ञा ) क्योंकि उसके सबसे अन्तका चित्त स्वयं उपादानकारण बनकर किसी दूसरे उपादेयोंको उत्पन्न नहीं करता है ( हेतु ) जैसे कि अन्त ( आखीर ) की दीपकलिका बक्षी, तैल, और पात्रसे रहित होकर दूसरे कलिकारूप स्वलक्षणोंको उत्पन्न नहीं करती है। या बिजली और बबूला उत्तरवर्ती बिजली, बबूल रूप पर्यायोंको नहीं बनाते हैं " ( अन्वय दृष्टान्त ) आचार्य कहते हैं कि इस प्रकार अनुमान बनाना ठीक नहीं है । इसमें परस्पराश्रय दोष है। क्योंकि अभीतक खङ्गिके चितका अन्तिमपना और अपने उपायको न उत्पन्न करना ये दोनों ही सिद्ध नहीं है । इस कारण अति कम सिद्ध हो ? जब कि वह चित्त अपने उपादेयकार्यको पैदा न करे और अपने उपायोंका उत्पन्न न करना कब सिद्ध हो ? जब कि पहले हेतुका चरमपना सिद्ध हो जाय । अतः
SR No.090495
Book TitleTattvarthshlokavartikalankar Part 1
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherVardhaman Parshwanath Shastri
Publication Year1949
Total Pages642
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size19 MB
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