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________________ २६४ सत्वार्थचिन्तामणिः बौद्ध कहते हैं कि प्रत्यक्षका अपने विषयमें दूसरे प्रमाणोंकी प्रवृत्ति होना रूप संवादन नहीं माना है तब तो क्या माना है ! सो सुनिये ! बाधाओंसे रहित समीचीनज्ञप्ति होजाना ही प्रत्यक्षका संवादन है आचार्य कहते है कि यदि ऐसा कहोगे तो... यथा भेदस्य संवित्तिः संवादनमवाधिता । तथैकत्वस्य निर्णीतिः पूर्वोत्तरविवर्तयोः ॥ १५५ ॥ जैसे घट, पट, देवदत्त, जिनदत्त आदि विशेषों को जाननेवाले प्रत्यक्ष प्रमाणमें बाधक प्रमाणोंसे रहित प्रमिति होना स्वरूप ही संवादन माना जाता है वैसे ही शिवक, स्थास आदि या माल, कुमार, युवा आदि पहिले, पीछे होने वाली अनेक अवस्थाओंमें भी उन्मरूपसे एकपनेका निर्णय हो रहा है। कथं पूर्वोत्तरविवर्तयोरेकत्वस्य संवित्तिरवाषिता या संवादनमिति चेत् , भेदस्य कथमिति समः पर्यनुयोगः। यदि बौद्ध यों कहे कि पूर्व उत्तरवर्ती मिन्न पर्यायों में वर्तनेवाले एकपनेका निर्णय मला बाघारहित होकर कैसे उत्पन्न होगा ! जो कि संवादन कहा जावे ऐसा कहनेपर हम जैन भी बौद्धोंसे पूछते हैं कि अन्चितरूपसे रहनेवाले पूर्व अपर परिणामों में सर्वथा भेदका निर्णय मी बाधारहित कैसे होगा ! बताओ, इस प्रकार हमारा भी प्रश्नरूप कराक्ष आपके ऊपर समानरूपसे लागू होता है। जैसा कहोगे वैसा सुनोगे। ___ तस्य प्रमाणातस्त्वादतद्विषयोण बाधनासम्भवादशाधिता संवित्तिरिति चेत सकस्वस्य प्रत्यभिज्ञानविषयवस्थाध्यक्षादेरगोचरत्वाचेन बाधनासम्भवादपाधिता संवित्तिः किन्न भवेत् ? यदि बौद्ध इस कटाक्षका उत्तर यों देंगे कि वस्तुमूत विशेषस्वरूप भेदोंको जाननेवाला वह प्रत्यक्ष प्रमाण स्वतंत्र न्यारा है । भेदके मानने प्रत्यक्षकी ही प्रवृत्ति है । दूसरे प्रमाण जब मेदको विषय नहीं करते हैं तो भेदको जाननेमें प्रत्यक्षके वाधक क्या हो सकेंगे ! उसको विषय नहीं करनेवाले ज्ञान करके बाघा देना असम्भव है । इस कारण दूसरे प्रमाणोंसे बाधारहित होकर भेवकी भली प्ति हो जाती है और प्रत्यक्षपमाण संवादी बन जाता है यदि वे ऐसा कहेंगे तब तो हम जैन भी कहते हैं कि निस्यपनेको जाननेवाले प्रत्यभिज्ञानके एकत्वस्वरूप विषयमें भी जब प्रत्यक्ष या स्मरण आदिकी प्रवृत्ति ही नहीं है तो वे एफपनेमें भाषा नहीं दे सकते हैं असम्भव है। तथा च एकखका ज्ञान भी बाधारहित क्यों न माना जावे ? अर्थात् प्रत्यभिज्ञान भी संवादयुरू है।
SR No.090495
Book TitleTattvarthshlokavartikalankar Part 1
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherVardhaman Parshwanath Shastri
Publication Year1949
Total Pages642
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size19 MB
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