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________________ तत्त्वार्थचिन्तामणिः स्वीकार की गयी है। इस प्रकार चक्रकगर्भित अनवस्था दोष है । अतः अनुमानसे भी सजातीयका ज्ञान नहीं हो सकेगा | Treat पर इति चेत्, तर्हि स्वतोभ्याससामर्थ्यंसिद्धाद्धा घका भावात्प्रसिद्धप्रामायादागमादं कमालायाः सूर्यादिग्रहणाकारभेदेन व्याप्तिः परिगृह्यते न पुनः सूर्यादिग्रहणाकारभेद एव इति सुग्धभाषितम्, ततो न विषमोऽयमुपान्यासो दृष्टान्तदार्शन्तिकयोरागमात्संप्रत्ययप्रसिद्धेः । आगमको परके द्वारा प्रमाणपना माननेवाले नैयायिक बाघकोंके नहीं उत्पन्न होनेको पर मानेंगे तब तो यह मानना कुछ अच्छा है, किंतु मकुतमें ऐसा कहना भोळेपनेकासा भाषण है । अपने बार बार अभ्यासकी सामर्थ्य से प्रसिद्ध हुए बाधकोंके रहितपनेसे जान लिया है प्रमाणपना जिसका ऐसे आगमसे अंकमालटाकी, चंद्र आदि के बाद राय नाप्ति तो ग्रहण करली जाती है, किंतु फिर एकदम सीधे सूर्य, चंद्रग्रहण के आकारोंकामेद ही नहीं जाना जाता है, ऐसी बातोंको भोली बुद्धिवाला ही कह सकता है; परीक्षक नहीं । मला विचारो तो सही कि जो पुरुष प्रमाणीक आगमके द्वारा पट्टीपर किखी हुयी अंकमालाकी महणके आकार मेदोंके साथ व्याप्तिको जान लेवें, किंतु आकारभेदको अन्तरालरहित न जान पाये, यह कहीं हो सकता है ? वह आगम द्वारा मणके आकारोंको मी अवश्य जान लेगा। इस कारण आगमसे परोक्ष मी मोक्षको निर्णय करनेके लिये दिया गया सूर्य आदिक ग्रहण के आकारभेद रूप यह दृष्टांत विषम कथन नहीं है, क्योंकि दृष्टांत ग्रहणका आकारमेद और दृष्टांतका उपमेय मोक्षरूप दान्तिकका प्रमाणीक आगमसे अच्छी तरह निर्णय करना प्रसिद्ध है । सामान्यतो दृष्टानुमानाच्च निर्वाणं प्रतीयते तथा हि मोक्षको आगमसे सिद्ध कर अब अनुमानसे सिद्ध करते हैं। नैयायिकोंने तीन प्रकारके अनुमान माने हैं। १ पूर्ववत् २ शेषवत् और ३ सामान्यतो दृष्ट | उनके अनुकूल सामान्यतो दृष्ट अर्थात् अन्वयव्यतिरेकी अनुमानसे भी मोक्षकी प्रतीति हो रही है, इसीको स्पष्ट कर वाचिक द्वारा दिखाते हैं शारीरमानसा सातप्रवृत्तिर्विनिवर्तते । क्वचित्तत्कारणाभावाद् घटीयन्त्रप्रवृत्तिवत् ॥ २५४ ॥ किसी आत्मा (पक्ष) शरीर संबंधी क्षुधा, शीत, रोग, भय आदि व्याधि और मनः सम्बन्धी राग, द्वेष, चिंता आदि आधियोंकी असावा आकुलतारूप प्रवृत्ति अतिशयपने से निवृत्त हो जाती है ( साध्यदल ) क्योंकि उस असाता के कारण माने गये ज्ञानावरण, वेदनीय आदि
SR No.090495
Book TitleTattvarthshlokavartikalankar Part 1
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherVardhaman Parshwanath Shastri
Publication Year1949
Total Pages642
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size19 MB
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