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________________ ३२२ तत्वार्थचिन्तामणिः यो प्रतिपादन करनेपर इस कारण प्रसिद्ध हुआ कि एक पदार्थ में भी विरुद्ध अनेक स्वभाव सिद्ध होजाते हैं वास्तवमे वे विरुद्ध नहीं हैं, केवल ऊपरी दृष्टिसे विरुद्ध सरीखे दीखते हैं । अतः उन प्रमाथा आदि यानी प्रमाता, प्रमिति, प्रमेय और प्रमाण यों निरूपण करनेसे चार भेद नहीं करने चाहिये | मात्रार्थ - जिनका परस्पर में सांकर्य हो जाता है उनमें तस्वभेद नहीं होता है । यहां भी हो जाता है। गीयन आता है । प्रमिति मी प्रमाणस्वरूप है । अतः नैयायिकों को प्रमाता आदि चार तत्त्व मानना युक्त नहीं है । हां सापेक्ष चार धर्म कह सकते हो । प्रमात्रादिप्रकाराश्चत्वारोऽप्यात्मनो भिन्नस्ततो नैकस्यानेकात्मकत्वं विरुद्धमपि सिद्धयतीति चेत् न, तस्य प्रकारान्तरत्वप्रसङ्गात् । अब नैयायिक कहते हैं कि प्रमाता, प्रमिति, प्रमाण और प्रमेय ये चारों ही भेद आत्मासे सर्वथा भिन्न हैं । इस कारणसे एकको अनेक विरुद्ध भी धर्मोका सादात्म्यपना सिद्धू नहीं हो पाता 1 है । अंधकार कहते हैं कि यहष्टनका कहना तो ठीक नहीं है। क्योंकि उस आत्माको न्यारा पांचव भेद बननेका प्रसंग आता है । भावार्थI -- जब कि आत्मासे वे चार तत्त्व भिन्न हैं तो आत्मा अवश्य ही उनमें से प्रमाता, प्रमेय आदि किसी में गर्मित न होकर पांचवा तत्त्व हुआ, आपके तत्त्वोंकी चारसंख्याका व्याघात हुआ । कर्तुत्वादात्मनः प्रमातृत्वेन व्यवस्थानात् न प्रकारान्तरत्वमिति चेत्, केयं कर्तृवा नामात्मनः १ आत्मा को कर्ता है इस कारण वह प्रमातारूपसे व्यवस्थित है। यों पांचवा भिन्न प्रकार होनेका प्रसंग नहीं आता है । यदि नैयायिक ऐसा करेंगे तो बताओ ? आत्माकी यह कर्तृत विचारी क्या वस्तु है ? | प्रमितेः समवायित्वमात्मनः कर्तृता यदि । तदा नास्य प्रमेयत्वं तन्निमित्तत्वहानितः ॥ २०८ ॥ प्रमाणसहकारी हि प्रमेयोऽर्थः प्रमां प्रति । निमित्तकारणं प्रोक्तो नत्मैवं स्वप्रमां प्रति ॥ २०९ ॥ प्रभितिको समवायसंबंध से धारण कर लेना यदि आमाका कर्तापन है तब हो इस आमाको प्रमेयपना नहीं आ सकता है, क्योंकि प्रमेय होनेमें कारण प्रमितिक्रियाका निमित्त कारणपना है । जब कि आत्मा समवायिकारण पन गया तो प्रमेय बनने के कारण उस निमित्तपनेकी छानि हो गयी । प्रनितिक्रिया करने में जो अर्थ प्रमाणका सहकारी कारण होता है वह प्रमेय कहा
SR No.090495
Book TitleTattvarthshlokavartikalankar Part 1
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherVardhaman Parshwanath Shastri
Publication Year1949
Total Pages642
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size19 MB
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