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________________ तत्त्वार्थचिन्तामणिः १३७ पर सिद्धि होजाती, अर्थात् करणमै प्रत्यय करनेसे मोक्षमार्ग में पडे हुए ज्ञानका ठीक अर्थ नहीं निकलता है । और हम नैयायिकों के मत में हो आत्मा से ज्ञानगुण सर्वथा भिन्न है । इस कारण ret मिति जानेसे ज्ञानको कारणपना युक्त I इसी प्रकार प्रतीति होने का कोई बाधक प्रमाण भी नहीं है । अस्तु – जैनों के मतानुसार ज्ञानशकि करण भले ही होजाओ, तो भी वह ज्ञानशक्ति कर्ता से कथञ्चित् अभिन्न है । यह तो जैनोंका कहना युक्त नहीं है, क्योंकि— शक्तिः कार्ये हि भावानां लान्निध्यं सहकारिणः । सा भिन्ना तद्वतोत्यन्तं कार्यतश्चेति कश्चन ॥ १० ॥ नैयायिक ही कहते जा रहे हैं कि कार्यकी उत्पत्ति करने में सहकारी कारणोंकी निकटताको ही हम पदार्थों की शक्ति मानते हैं। वह शक्ति उन शक्तियुक्त पदार्थोंसे और कार्यले सर्वथा भिन्न है, अर्थात् मिमें कोई स्वतंत्र दाहकत्व शक्ति नहीं है, किंतु प्रतिबंधकमण्यभाव विशिष्ट अभिको दाहके प्रति कारणता नियत होजानेसे चंद्रकांतमणिकी सत्ता अभि दाह नहीं कर सकती है, और सूर्यकांत तथा चंद्रकांत मणिके होनेपर या केवल अभिके होनेपर अभिदाह कर देती है। कारण कि उत्तेजकामाव विशिष्ट जो मणि उसका अभाव दाह करनेमें सहकारी कारण माना है, इसी प्रकार मृत्तिका में घट बनने की शक्ति भी कुलाल, चक्र, दण्ड आदि सामग्रीका मिल जाना है। इसके पतिरिक्त जैनियोंसे मानी हुयी अतीन्द्रियशक्ति कोई पदार्थ नहीं है । इस प्रकार कोई नैयायिक कह रहा है। ज्ञानादिकरणस्यात्मादेः सहकारिणः सान्निध्यं हिशक्तिः स्वकार्योत्पत्तौ न पुनस्तद्वत् स्वभावकृता शक्तिमतः कार्याच्चात्यन्तं भिन्नत्वात्सस्या इति कश्चित् । ज्ञान, दर्शन, आदि हैं कारण जिसके ऐसे आत्मा, अमि, आदि पदार्थोंकी अपने कार्योंको उत्पन्न करने में सहकारी कारणोंका सान्निध्य ही शक्ति है, किंतु फिर जैनोंकी मानी हुयी उस शक्तिया पदार्थों के स्वभावरूप की गई कोई अतीन्द्रिय शक्ति नहीं है। क्योंकि वह सहकारिओंका मिल जाना रूप शक्ति अपने शक्तिमान कारणले और कार्यसे सर्वथा भिन्न है, जैसे मृतिकामै घट बननकी शक्ति दण्ड, चक्र, कुलालरूप ही है। वह शक्ति मृत्तिकासे और घटसे सर्वथा न्यारी है, इस प्रकार यहां तक कोई नैयायिक कह रहा था । तस्यार्थग्रहणे शक्तिरात्मनः कथ्यते कथम् । भेदादर्थान्तरस्येव संबन्धात् सोऽपि कस्तयोः ॥ ११ ॥ अब आचार्य महाराज उत्तर देते हैं कि जब शक्तिको शक्तिमान् से सर्वथा भिन्न आप नैयायिकोंने मानी है तो उस आत्माकी अर्थग्रहण करने में जो शक्ति है, वह आत्माकी शक्ति कैसे कही
SR No.090495
Book TitleTattvarthshlokavartikalankar Part 1
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherVardhaman Parshwanath Shastri
Publication Year1949
Total Pages642
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size19 MB
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