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.. सत्त्वाचिन्तामणिः
यदि यहां प्रतिवादी चार्वाक यों कहे कि आमाका स्वसंवेदन प्रत्यक्षके द्वारा जान लेना सिद्ध नहीं है । इस पर आचार्य उत्तर कहते हैं कि:
स्वसंवेदनमप्यस्य बहिःकरणवर्जनात् ।
अहंकारास्पदं स्पष्टमबाधमनुभूयते ॥ १०३ ॥ इस अन्तरंग आत्माका बहिरंग पांच इन्द्रियोंसे रहित, तथा “ में मैं " इस प्रकार की प्रतिति का स्थान, और बाधारहित, विशद रूपसे स्वसंवेदन प्रत्यक्ष होना भी अनुभवमें आरहा है। बाल, वृद्ध, पामर, बनिता आदि सभी जीव न्यारे आत्माका अनुभव कररहे हैं ।
न हीदं नीलमित्यादि प्रतिमासनं स्वसंवेदनं बाह्येन्द्रियजत्वादनहंकारास्पदत्वात् , न च तथाई सुखीति प्रतिभासनमिति स्पष्टं तदनुभूयते ।
यह कम्बल नीला है, यह पुष्प पीला है, इत्यादि ज्ञान आस्मा और आत्मीय तत्त्वोंके जानने वाले स्वसवेदन प्रत्यक्ष रूप नहीं है। क्योंकि नील, पीत भादिकके ज्ञान तो बहिरंग चक्षुराविक इन्द्रियोंसे जन्य है । बाह्य इन्द्रियोंसे जन्य है। तभी तो नील आदिके ज्ञान में मैं इत्याकारक अहं आकार ( अर्थविकल्प ) को करनेवाली बुद्धि के स्थान नहीं है । किन्तु मैं सुखी हूं, मैं ज्ञानवान् हूं, इस प्रकारके वे वेदन तो विशद रूपसे अनुभवमें आरहे हैं। ये ज्ञान बाह्येन्द्रियोंसे जन्य नहीं है तथा अई अहं इत्या कारक प्रतीतिके आधार भी हैं। अतः स्वसंवेदन रूप है, यह सिद्ध हुआ।
गौरोहमित्यवभासनमनेन प्रत्युक्त, करणापेक्षत्वादह गुल्मीत्यवभासनवत् ।
अहंपनेको अवलम्ब लेकर तो मैं गौरा है मैं स्थल है यह भी ज्ञान होता है । इस कारणसे मैं इस प्रतीतिका आधार शरीर मानना चाहिये । इस मकार चार्वाकका कहना भी, जो " बहिरंग इन्द्रियोंसे जो जन्य है, वह स्वसंवेदन नहीं है ।" इस पूर्वोक्त अनुमानसे ही खण्डित हो जाता है। क्योंकि बैसे कि मैं फोडेवाला हूं, मैं तिल्लीवाला हूं, मैं गूगडेवाला ई, यह ज्ञान बहिरंग इन्द्रियोंकी अपेक्षा होनेसे अहं बुद्धिका आधार होता हुआ भी स्वसंवेदन नहीं है, वैसे ही मैं गौरा हूं, मैं काला हूँ, मैं मोटा ई. से ज्ञान भी पर्शन, चक्षुरिन्द्रियों की अपेक्षा रखनेवाला होनेसे स्वसंवेदनरूप नहीं है । वस्तुतः विचारा जाय तो यहां शरीस्म शब्दकी प्रवृत्ति उपचारसे है । जैसे कि अस्यन्त मिय पुरुषको यह मेरी आंख है, ये. मैं ही हूं, यह कहना कल्पनामात्र है। शरीरमें आत्माका मोहअन्य प्रियपना है।
करणापेक्षं हीदं शरीरान्तःस्पर्शनेन्द्रियनिमित्तत्वात् । मुख्यहमित्यवभासनमिति तथास्तु तत एवेति चेत्, न, तस्याहंकारमात्राश्रयत्वात्, भ्रान्तं तदिति चेत्र, माधत्वात् ।