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तत्त्वावचिन्तामणिः
आपके यहां अनेकान्तरूपसे माना गया है। अतः उस अनेकान्तमें भी अनेकान्तोंके भारोप करनेकी जिज्ञासा बढ़ती जावेगी । इस मनवस्था दोषका भी आप परिहार नहीं कर सकते हैं। अन्योन्याश्रय दोष भी इसके गर्भ में पड़ा हुआ है। यदि आप प्रमाणको एकान्तस्वरूप मान लेवेगे तो सबको अनेकान्तरूप माननेकी प्रतिज्ञाकी हानिका प्रसंग होता है । इस प्रकार नयको भी एकान्तस्वरूप ( एकधर्म ) मानोगे तो भी यही दोष होता है अर्थात् समको अनेकान्त स्वरूप मानने की प्रतिझा नष्ट होती है। और यदि नयको अनेकान्तात्मक मान लोगे तो इस प्रकार प्रतिमा हानि दोषका तो वारण हो जावेगा, किन्तु वही अनेकान्तम अनेकान्त और उसमें भी फिर भनेकर्म मानते मानते अनवस्था दोष आजाता है । इस प्रकार कोई एकान्तवादी अपने उपप्लवकी तुलन करते हुए कहरहे हैं । अब अन्धकार महोदय समाधान करते हैं कि
तेऽप्यतिसूक्ष्मेक्षिकान्तरितप्रज्ञाः, प्रकृतानेकान्तसाधनस्यानेकान्तस्य प्रमाणात्मकत्वेन सिद्धत्वादभ्यस्तविषयेऽनवस्थाधनववतारात् ।
उन आक्षेप करनेवाले एकान्तवादियोंकी भी विचारशालिनी बुद्धि अधिक सूक्ष्म पदार्थको देखनेके कारण छिप गयी है अर्थात् जो कुतर्की बालकी खाल निकालते हुए व्यर्थ गहरा विचार करते रहते हैं, वे कुछ दिनों पोंगा बन जाते हैं। यदि ऐसे ही निस्तत्त्व विचार किये जावे तो संसारके अनेक व्यवहार लुप्त हो जायेंगे । जलसे कोई अंग शुद्ध न हो सकेगा। क्योंकि अशुद्ध अंगपर पाहिक डाला हुआ जल भी अशुद्ध ही रहा। इस प्रकार सहस बार धोनेपर मी गुह्यरंग शुद्ध नहीं हो सकता है तथा लोटेको एक बार मांजकर कुए फांस दिया ऐसा करनेपर कुएका जक लोटेके संसर्गसे अशुद्ध होगया, फिर अशुद्ध लोटेको दुबारा, तिवारा, मांजनेसे क्या प्रयोजन निकला ! यही बात हाथ मटियानेमें भी समझ लेना । एवं मुखमें ग्रास रखते ही कार मिल जाती है, थूक दन्तमल भी मिलजाता है, किसी किसी दन्तरोगीके तो मसूडोसे निकला हुआ रक्त आदि भी मिल जाते हैं। ऐसी दशाम वह भक्ष्यपदार्थ मुखमें जाकर अशुद्ध हो जाता है, तो फिर क्यों ठीक लिया जाता है, आदि कटाशोंसे शिथिलाचारी पुरुष जैसे अपनी विचार बुद्धिको भ्रष्ट करते है, वैसे ही आक्षेपकर्ताकी बुद्धिमें अन्तर पर गया है। कई बार जलसे धोना ही शुद्धिका कारण है। अन्यथा औषधि भी पेटमें जाकर रोगको दूर न कर सकेगी। कई प्रासोको खाकर भी मुख दूर न होगी । किन्तु होती है । अतः जल, अमि, भस्म, वायु, काल आदि. शोषक पदार्थ माने गये हैं। कूप स्वभावसे शुद्ध है। नदी, तालाब, कूपमें डाल दिया गया मळ मी थोडी देर पीछे निर्मल पर्यायको धारण करलेता है। जल सबका शोधक है। भक्ष्यका विचार थालीम रखे हुए पदामि है। अपने मुखमै रखी हुयी लार या यूक अभक्ष्य नहीं हैं। बाहिर निकलनेपर वे अमक्ष्य हो जाते हैं। हां ! मुस्वरोगीको रक्त आदिका बचाव अवश्य करलेना चाहिये । अन्यथा मभक्ष्य भक्षणका दोष लगेगा। अशक्यानुष्ठानमें किसीका वश नहीं है। दोष तो लगेगा ही। प्रकरण में