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________________ तस्वार्थचिन्तामणिः फैल जाते हैं। तीसरे समयमै वातक्लयोंको छोडकर सर्व लोकमें वे मदेश व्याप्त हो जाते हैं और चौथे सभयमें वातबलय भी भर जाते हैं इसको लोकपूरण कहते हैं । आत्मा लोकाकाशके बराबर हो जाता है, यह प्रसारणविधि है। बादमें पूर्वके समान संकोचन होता है । पांचवे समयमें प्रतर और छेडेमें पुनः कपाट फिर दण्डके अनुसार प्रदेशरचना होकर आठवे समयमें पूर्वशरीरके अनुसार आत्मा हो जाता है । इस केवलिसमुद्धातसे तीन अघाती कोंकी स्थिति आयु के बराबर हो जाती है । इसके कई अन्य भी लौकिक दृष्टांत हैं । न चैवं रलत्रयहेतुता मुक्ताहन्यते निश्चयनयादयोगकेवलिचरमसमयवर्तिनी रलत्रयस्य मुक्तहेतुत्वव्यवस्थिते ।। कोई आक्षेप करे कि इस मकार माननेपर तो सम्यग्दर्शन, ज्ञान, चारित्रको मोक्षकी कारणसाका व्याघात होता है क्योंकि चौथेसे सात तक किसी भी गुणस्थानमें क्षयोपशम सम्यग्दर्शनके विद्यमान होनेपर करणत्रय करके अनन्तानुबन्धीका विसंयोजन हो जानेपर पुनः करणत्रयस दर्शनमोहनीय कर्मके क्षय हो जानेसे क्षायिकसम्यक्त्व हो चुका है, और दशमे गुणस्थानके अंतमें चारित्रमोहनीयका अविकलध्वंस हो जानेपर क्षायिक चारित्रगुण भी बारहवें गुणस्थानके आदि समयमें प्रकट हो चुका है, तथा बारहवें गुणस्थानके अंतमें ज्ञानावरणके नाश हो जानेस तेरहवेकी आदिमें क्षायिक केवलज्ञान भी उत्पन्न हो गया है, फिर क्या कारण है कि रत्नत्रय होनेपर भी मोझ नहीं होपाती है ! ग्रंथकार कहते हैं कि यह कहना ठीक नहीं है क्योंकि व्यवहारनयसे यद्यपि तीनों रत्न पूर्ण हो चुके हैं, फिर भी चारित्रगुण अघातिकाँके निमित्तसे आनुषंगिक दोष आ जाते हैं ! परमावगाढ सम्यग्दर्शन चौदहवे गुणस्थानके अंतमें माना है तथा पूरा चारित्र व्युपरतक्रियानिवृत्ति ध्यान भी चौदहवेंके अंतसमयमें माना है। निश्चयनयसे चौदहवे गुणस्थानके अंतसमयमै योगरहित केवलज्ञानीके होनेवाले रक्षत्रयको मोक्षका कारणपना व्यवस्थित किया गया है । तब वे एक क्षण भी संसारमें नहीं ठहरते हैं ! चौदहवेंके अंतमें रत्नत्रयकी पूर्णता कर उसके उत्तरक्षणम स्वाभाविक ऋजुगतिसे ऊर्ध्व गमन कर लोकके सबसे ऊपर तनुवातबलयमें स्थित पैतालीस लाख योजन लम्बे चौडे और पांच सौ पच्चीस धनुष ऊंच थालीके आकार गोल सिद्धलोकमें वे अनंत काल तकके लिये विराजमान हो जाते हैं। - ननु स्थितस्याप्यमोहस्य मोहविशेषात्मकवितक्षानुपपत्तेः कुतः श्रेयोभार्गवचनप्रयसिरिति च न मन्तव्यम्। तीर्थकरत्वनामकर्मणा पुण्यातिशयेन तस्यागमलक्षणतीर्थकरवश्रियः सम्पादनाचीर्थकरत्वनामकर्म तु दर्शनविशुद्धयादिभावनावलभावि विभावयिष्यते । यहां शंका है कि जिनेन्द्र भगवान् आयुकर्मके अधीन होकर संसारमें स्थित रहते हैं यह तो ठीक है किंतु जब भगवान्के मोहनीय कर्मका नाश पहिले ही होगया है तो विशेष मोहनीय .
SR No.090495
Book TitleTattvarthshlokavartikalankar Part 1
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherVardhaman Parshwanath Shastri
Publication Year1949
Total Pages642
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size19 MB
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