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________________ तत्त्वार्थचिन्तामणिः १४९ कर्मके उदयसे होनेवाली बोलनेकी इच्छा तो मोहरहितभगवान्के बन नहीं सकती है, फिर कैसे इच्छाके विना भगवानके मोक्षमार्गके प्रतिपादन करनेवाले वचनोंकी प्रवृत्ति होसकेगी ? बताओ। आचार्य कहते हैं कि यह नहीं मानना चाहिये, क्योंकि तीर्थकरत्वनामका नामकर्म अत्यंत चमत्कारी पुण्य है । उस बहिरंगकारणके द्वारा उस अनंतचतुष्टयघारी भगवान्ने द्वादशांग आगमरूप तीर्थ धनानेकी लक्ष्मीको प्राप्त किया है । अर्थात् अनेक दुःखोंसे निकालकर भव्यजीवोंको मोक्षधाममें पहुंचानेके लिये श्रेष्ठ आगम द्वादशांग वाणीरूपी घाट संसारसमुद्रसे पार होनेके लिये बना दिया है। वह आगमरूपी पाटके बनानेमे निमित्त कारण तीर्थंकर त्रसंज्ञावाला नामकर्म तो दर्शनविशुद्धि आदि सोलह कारण भावनाओंके बलसे भन्यजीवोंके चौथे गुणस्थानसे लेकर आठवेके छठे माग तक बधको प्राप्त हो जाता है। इस बातका भविष्यग्रंथमें अच्छी तरहसे विचार कर निर्णय कर देवेगे। न च मोहति विवक्षानान्तरीयकत्वं वचनप्रवृत्चेरुपलभ्य प्रक्षीणमोहेऽपि तस्य तत्पूर्वकत्वसाधनं श्रेयः, शरीरित्वादेः पूर्वी सर्वज्ञत्वादिसावनानुगात, चौविमानान्तरीयकत्वासिद्धेश्चेति निरवध सम्यग्दर्शनादित्रयहेतुकमुक्तिवादिनां श्रेयोमार्गोपदेशित्वम् । मोहयुक्त संसारी जीवोंमें बोलनेकी इच्छाके विना न होनेवाली अर्थात् बोलनेकी इच्छपूर्वक ही होनेवाली वचनप्रवृत्तिको देखकर मोहरहित जिनेन्द्रदेवके भी उन वचनोंका विवक्षापूर्वकपन सिद्ध करना अच्छा नहीं है । अन्यथा यों तो केवलज्ञानीके शरीरधारीपन, वक्तापन आदि हेतुओंसे पूर्वके समान असर्वज्ञता भी सिद्ध हो जावेगी," अर्हन असर्वज्ञः शरीरधारित्वात् , वक्तृत्वात्, अध्यापकवत्, " मिट्टीका विकार होनेसे घटफे समान सर्पकी वामी भी कुम्हारकी बनाई हुयी नहीं सिद्ध होती है। " वक्ष्मीकै कुम्भकारकृतं मृद्रिकारवाद घटवत्," उसी प्रकार सामान्य संसारीजीवोंके वचनेमि बोलनेकी इच्छाको कारण देखकर सर्वज्ञदेवके वचनोंके अव्यवहित पूर्वमें मी बोलनेकी इच्छाका सिद्ध करना ठीक नहीं है । तथा वचनका विवक्षाके साथ अविनाभावीपन सिद्ध मी नहीं है। क्योंकि सोते समय और मूर्छा आदिमें विवक्षाके बिना मी वचन बोल दिये जाते हैं । कमी कमी बोलनेकी इच्छा अन्य होती है और मुखसे दूसरा ही शब्द निकल जाता है। ऐसे गोत्रस्खलनमें इच्छाके नहीं होते हुए भी शब्दप्रवृत्ति हो जाती है, “ न अन्तरे भवतीति नान्तरीयकः " इसका अर्थ अविनाभान होता है। विवक्षाका और वचनप्रवृत्तिका अविनामावसम्बन्ध नहीं है। इस प्रकार अब तक निर्दोष रूपसे यह सिद्ध हुआ कि सम्यग्दर्शन, ज्ञान, चारित्र तीनको मोक्षका कारण माननेवाले स्याद्वादियोंके मतमै सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञानके स्वांशोम पूर्णता होनेपर भी तथा चारित्रके अंशोमें पूर्णता होनेके पहिले जिनेन्द्रदेवके मोक्षमार्गका उपदेशकान बन जाता है।
SR No.090495
Book TitleTattvarthshlokavartikalankar Part 1
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherVardhaman Parshwanath Shastri
Publication Year1949
Total Pages642
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size19 MB
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