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________________ तस्वार्थचिन्तामणिः आता ही नहीं, पदार्थमै परिणाम (विकास) न मानकर जो एकातरूपसे पदार्थको नित्य या सर्वथा अनित्य या एक, अनेक, उभय, आदि मानते हैं उनके मतमें पूर्वस्वभावका त्याग, उत्तर स्वभावोंका ग्रहण और कालांतर स्थायी पर्यायोंसे स्थित रहनारूप परिणाम नहीं बनेगा, जब उक्त सिद्धांत लक्षणवाला परिणाम ही न बनेगा, तब एक समयमे साथ होनेवाली या क्रमसे अनेक समयों में होनेवाली वस्तुकी अर्थक्रियाओं का भी विरोध होगा और जब एक समयमें या क्रमसे स्नान, पान, अवगाहन अर्थोकी परिस्पन्द और अपरिस्पन्दरूप क्रियाएँ ही न होगी तो जलादिकोंमें वस्तुपना कैसे सम्भव हो सकता है ? । अर्थात् वस्तु उसे ही कहते हैं, जो वर्तमान और भूत, भविष्यत्में अनेक अर्थक्रियाओंको करती है। अर्थक्रिया करनेमें वस्तुको पहिले क्षणिक स्वमाव छोड़ने पड़ते हैं और नयी सदृश या असदृश लते ग्रहण करनी पड़ती हैं । तथा द्रव्यरूपसे अन्वय भी बना रहता है, ये अवस्थायें सर्वथा नित्य या अनित्यपक्ष में बन नहीं सकती है अतः आप मीमांसक शब्दको एकातरूपसे नित्य नहीं मान सकते हैं। ___ नापि सर्वथा द्रव्यं पर्यायात्मतास्त्रीकरणात्, स हि पुद्गलस्य पर्यायः क्रमशस्तत्रोद्भवस्वाच्छायातपादिवत् , कथञ्चिद्व्यं शब्दः क्रियावचाब्दाणादिवत् धात्वर्थलक्षणया क्रियया क्रियावता गुणादिनानैकान्त इति चेन्न परिस्पन्दरूपया क्रियया क्रियावत्वस्य हेतुत्ववचनात् । क्रियावस्वमसिद्धमिति चेन्न, देशान्तरप्राप्तया तस्य तत्सिद्धरन्यथा बाणादेरपि निष्क्रियत्वप्रसंगान्मतान्तरपवेशाच्च ततो द्रव्यपर्यायात्मकत्वाच्छब्दस्पैकान्तेन द्रव्यवासिद्धिः । शब्दको सर्वगत सिद्ध करनेके लिए मीमांसकोंने नित्यद्रव्यपना अमूर्तरूप हेतुका विशेषण दिया था। उससे शब्दकी नित्यसाका तो खण्डन हो चुका । अब द्रव्यपनका भी खण्डन करते हैं कि शब्द सर्वथारूपसे द्रव्य नहीं है क्योंकि शब्द पुद्गलद्रव्यको पर्यायस्वरूप है । शब्दमें पुद्गलका पर्यायपना मी असिद्ध नहीं है । इसका अनुमान करते हैं कि "शब्द पुद्गलकी पर्याय है क्योंकि कम क्रमसे नाना विकासोको करता हुआ शब्द पुद्गलमें उपादेयरूपसे पैदा होता है, जैसे कि छाया, धूप, थोत आदिक पुद्गलकी पर्याय है" । साधारण मनुष्य समझता है कि ताली बजाते ही शीघ्र शब्द बन जाता है । नामिस्थानसे कण्ठ ताल द्वारा यायुके निकालनेपर गकार आदि शब्द बन जाते हैं और सूर्य, चन्द्रमाके निकलतेही धूप और चांदनी बन जाती है । यह उसका समझना ठीक नहीं है क्योंकि अनेक समयोंमें कारण-क्रिया-संतानके द्वारा शब्द, धूपादिकी उत्पत्ति होती है । अतः वे कारणोंसे आत्मलाभ करते हुए पर्याय हैं । सर्वथा द्रव्य नहीं है । जैनसिद्धांत में शब्दको कथञ्चिद् द्रव्य मी स्वीकार किया है क्योंकि पर्यायोंमें तो अन्य पर्यायें होती नहीं
SR No.090495
Book TitleTattvarthshlokavartikalankar Part 1
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherVardhaman Parshwanath Shastri
Publication Year1949
Total Pages642
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size19 MB
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