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________________ तत्त्वार्थ चिन्तामणिः किंतु शब्द देश देशांतरको जाता है अतः बाण, लोष्ट आदिके समान क्रियावान् होनेसे शब्द क्रिया रूप पर्यायका धारी होता हुआ कथञ्चिद् द्रव्य भी है । ५५ जो जो क्रियावान् होते हैं, वे चे कथञ्चिद् द्रव्य भी होते हैं । ऐसी व्यासि कोई व्यभिचार दोष देता है कि पीला रूप उत्पन्न होगया, मीठापन बढ गया, सुगंध स्थित है, भ्रमण करता है । इस प्रकार पद, वृधु, अस्, डुकृञ् आदि धातुओंके अर्थ स्वरूप उत्पत्ति, वृद्धि, स्थिति और करण रूपक्रियाएँ रूपादिगुणों में और भ्रमण आदि कम में भी विद्यमान हैं । क्रियावाची भू आदि ही धातु संज्ञक माने गये हैं | अतः गुण या कर्म रूपादिकमें किया सहितपना होनेसे द्रव्यपना हो जावेगा | यह हेतुके ठहरने और साध्यके नहीं रहने के कारण व्यभिचार हुआ | आचार्य कहते हैं कि ऐसा कहना तो ठीक नहीं है क्योंकि इस प्रकरण में धातुओं के अर्थरूप क्रियाओंको द्रव्य सिद्ध, करनेमें क्रिया नहीं माना गया है किंतु देशसे देशान्तर करनेवाली हरून, चलन, कम्पन, भ्रमणरूप क्रियाओंके सहितपनेको हेतु कहा गया है निश्चल भावोंसे सत्पुरुषोंकी गादीके अभिप्राय अनुसार हेतुको समझकर पुन व्यभिचार उठाना चाहिए | यहां कोई शब्द उक्त क्रिया से सहितपने रूप हेतुकी असिद्धि बतलावे अर्थात् पक्षमै हेतु नहीं रहता है सो भी ठीक नहीं है क्योंकि शब्दका वक्ता के मुखप्रदेश से श्रोता के कानोंतक पहुंचना या मेघगर्जनका हमारे कानोंतक आना विना क्रिया के सिद्ध नहीं है। यदि क्रिया के विना मी देशसे देशान्तर हो जाय तो बाण, गोली आदिको भी क्रियारहितपनेका प्रसंग आ जायेगा । ऐसा माननेपर बौद्ध लोगों के मत - का भी प्रवेश होता है अर्थात् बुद्धमतानुयायी जन क्रियासे सहित एक अन्येता द्रव्यको तो मानते नहीं है क्षण क्षण नष्ट होनेवाली पर्यायोंको ही स्वीकार करते हैं। एक वही याण पचास गजतक नहीं जाता किन्तु पचास गज लम्बे प्रत्येक आकाशके प्रदेशपर नया नया बाण पैदा होता जाता है । वह वाणी सन्तान स्वयं क्रियारहित है । मीमांसक, नैयायिक और जैनलोग तो उक्त बौद्ध प्रक्रियाका खण्डन करते हैं । उस कारण अबतक सिद्ध हुआ कि कथञ्चिद् द्रव्य और बहुभाग पर्यायस्वरूप ही शब्द है । अतः सर्वथा द्रव्यपना शब्दमें सिद्ध नहीं हो सकता है । मा का हेतु स्वरूपासिद्ध हेखाभास है । अयं चासिद्धं तस्य मूर्तिमद्रव्यपर्यायत्वात् । मूर्तिमद्रव्यपर्यायोऽसौ सामान्यविशेषवच्चे सति बाह्येन्द्रियविषयत्वादातपादिवत् । न च घटत्वादिसामान्येन व्यभिचार:, सामान्यविशेषवच्चे सतीति विशेषणात्परमतापेक्षं चेदं विशेषणं । स्वमते घटत्वादिसामान्यस्यापि सदृशपरिणामलक्षणस्य द्रव्यपर्यायात्मकत्वेन स्थितेस्तेन व्यभिचाराभावात् । कर्मणानैकान्तिक इति चेन्न तस्यापि द्रव्यपर्यायात्मकत्वेनेष्टेः, स्पर्शादिना गुणेन व्यभि चारचोदनमनेनापास्तम् | P
SR No.090495
Book TitleTattvarthshlokavartikalankar Part 1
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherVardhaman Parshwanath Shastri
Publication Year1949
Total Pages642
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size19 MB
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