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________________ तत्त्वार्थचिन्तामणिः प्रकार नित्यद्रव्य होकर अमूर्तपना हेतु भी शब्दको व्यापक सिद्ध करनेमें दोनों या तीनों प्रमाणोंसे बाधित हो रहा कालात्ययापदिष्ट नामका हेवाभास है । ___ स्वरूपासिद्धश्च सर्वथानित्यद्रव्यत्वामूर्तत्वयोधर्मिण्यसम्भवात्, तथा हि-परिणामी शब्दो वस्तुत्वान्यथानुपपत्तेः, न वस्तुनः प्रतिक्षणविवर्तेनैकेन व्यभिचारस्तस्य वस्त्वेकदेशतया वस्तुत्वाव्यवस्थितेः, न च तस्यावस्तुत्वं वस्त्वेकदेशत्वाभावप्रसंगात्, वस्तुत्वस्यान्यथानुपपत्तिरसिद्धति चेन्नैकान्तनित्यत्वादौ पूर्वापरस्वभावत्यागोपादानस्थितिलक्षणपरिणामाभावे क्रमयोगपद्याभ्यामर्थक्रियाविरोधाद्वस्तुत्वासम्भवादिति नैकान्तनित्यः शब्दः । और शब्द को सर्वगत सिद्ध करने में दिया गया हेतु स्वरूपासिद्ध हेल्वाभास भी है, क्योंकि शब्दरूपी पक्षमें सर्वथा ही नित्यद्रव्यपना और मूर्तिरहितपना धर्म नहीं ठहरता है असम्भव है। वास्तवमें देखा जाय तो शब्द पगलद्रव्यकी थोड़ी देर ठहरनेवाली पर्याय है और पौद्गलिक होनेसे शब्द परिमितपरिणाम या रूपादिवाला होकर मूर्त भी है । इसी बातको आचार्य अनुमान द्वारा स्पष्टरूपसे कहते हैं:- "शब्द परिणामी है क्योंकि परिणामके विना शब्दमें वस्तुपना नहीं बन सकता है" । यहां कोई दोष देता है कि प्रत्येकक्षणमें होनेवाली रूपादिकगुणों की काली, नीली एक एक पर्याय भी तो वस्तु हैं किन्तु पर्यायोमै पुनः दूसरे परिणाम तो नहीं माने गये है। अतः एक पर्याय हेतुके रहने और साध्यके न रहनेसे व्यभिचार हुआ ! आचार्य कहते हैं कि यह व्यभिचार दोष जनोंके हेतुमें नहीं है क्योंकि जैन लोग संसारी जीव, जिनदत्त, मृत्तिका, सुवर्ण आदि अशुद्ध द्रव्योंको और परमाणु, कालाणु, आदि द्रव्योंको परिपूर्ण वस्तुपना मानते हैं। उक्त द्रव्यों की एक एक समयमें होनेवाली उस केवल पर्यायको वस्तुका एकदेश मानते हैं, परिपूर्ण वस्तुपना वहाँ व्यवस्थित नहीं है, जैसे कि समुद्रके एकदेशको समुद्र नहीं माना जाता है। और असमुद्र भी नहीं कहा जाता है किंतु वह समुद्रका एकदेश है । अतः केवल एकपर्यायम हेतु और साध्य दोनोंके न रहनेसे व्यभिचार दोष नहीं है । पुनः यहाँ कोई कहे कि प्रत्येक क्षणकी काली, नीली, पर्यायोंको आप वस्तु नहीं मानते हैं तो घोडेके सींग समान उन पर्यायोंको अवस्तुपना आवेगा, यह कहना ठीक नहीं है क्योंकि यदि पर्याय बंध्यापुत्रके समान अवस्तु होती तो वस्तुका एकदेश भी न हो सकती थी, स्वरविषाणके समान अवस्तुको वस्तके एकदेशपनेका भी अभाव माना गया है । क्या समुद्रका टुकडा ( बंगाल की खाड़ी) समुद्रका एकदेश नहीं है । । भावार्थ पर्यायको यदि सर्वथा अवस्तुपना माना जायेगा तो वस्तुके एकदेशपनेके अभावका भी प्रसंग हो जावेगा, जो कि इष्ट नहीं है। पश्चात् यहाँ कोई कहै कि वस्तुसहेतुकी परिणामसहितपनेके साथ साध्यके बिना हेतुका न रहना स्वरूपव्याप्ति असिद्ध है, ऐसा कहना भी तो ठीक नहीं, क्योंकि परिणामके बिना वस्तुपना
SR No.090495
Book TitleTattvarthshlokavartikalankar Part 1
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherVardhaman Parshwanath Shastri
Publication Year1949
Total Pages642
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size19 MB
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