SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 59
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ तत्वार्थचिन्तामणिः एक समयमें प्रकट करनेवाले वायुविशेष ही भिन्न भिन्न देशोंमें रहते हैं । अतः व्यापक भी एक शब्दव्यञ्जक वायुओंके अधीन होकर अनेक देशामें जाना जाता है । अखण्ड शब्दका अपने स्वरूपसे खण्ड खण्ड होकर नानादेशों में सुनायी पड़ता सम्भव नहीं है। जब बाधारहित होकर भिन्न देशो में दीखनारूहेतु शब्दमें असिद्ध है फिर बलात्कारसे [ जबर्दस्ती । जो शब्दमें अनेक एनेका बोझ क्यों लादा जाता है ? बताओ, यहांतक मीमांसकोंके कह जानेपर आचार्य कहते हैं कि वह मीमांसकोंका कथन युक्तिरहित है क्यों कि सींग और सास्वासे युक्त पशुको कहनेवाले उस गो शम्दका सर्वव्यापकपना असिद्ध है । उत्पन्न और नष्ट होते हुए अनेक गोशब्दही बाल-वृद्धोंको अनेकदशमें सुनायी पड़ रहे है । मीमांसक लोगोंने श दके कूटस्थ नित्यपना भी माना है । ऐसी दशामें वायुके द्वारा प्रकट हो जानेपनका भी निषेध करना पडेगा क्योंकि कूटस्थ पक्षमें नहीं प्रकट अवस्थासे पुनः म अवस्था जाना है। सर्वगतः शब्दो नित्यद्रव्यत्वे सत्यमूर्चत्वादाकाशवदिन्येतदपि न शब्दसर्वगतत्वसाधनापालं जीवद्रव्येणानकान्तिकत्वात्, तस्यापि पक्षीकरणान्न तेनानैकान्त इति चेन प्रत्यक्षादि विरोधात् । श्रोत्रं हि प्रत्यक्षं नियतदेशतया शब्दमुपलभते, स्वसंवेदनाध्यक्ष यात्मानं शरीरपरिमाणानुविधायितयेति कालात्ययापदिष्टो हेतुस्तेजोनुष्णवे द्रव्यत्ववत् । मीमांसक लोगोंने शब्दको व्यापक सिद्ध करने के लिए यह अनुमान किया है कि शब्द ( पक्ष ) सम्पूर्ण स्थान में व्यापक है ( साध्य ) क्योंकि वह नित्यद्रव्य होकर अमूर्त है। ( हेतु) जो जो नित्यद्रव्य होकर अमूर्त यानी अपकृष्ट परिमाणवाला है वह व्यापक है, जैसे आकाश अन्वय दृष्टान्त है इस हेतुमे नित्यद्रव्य विशेषणसे घर, पर आदि अनित्य द्रव्योंमें और गुणक्रियादिकोंमें व्यापकपनेका व्यभिचार नहीं हो पाता है । तथा अमूर्त कहनेसे परमाणुओं में हेतुका ब्यमि. चार नहीं है। अन्धकार कहते हैं कि इस प्रकार मीमांसकोंका मीमांसापूर्वक दिया गया हेतु मी शब्दको सर्वगतपनेके साधन करने में समर्थ नहीं है क्योंकि जीवद्रव्यसे व्यभिचार हो जावेगा । देवदत्त, जिनदत्त आदि जीव नित्यद्रव्य है और अमूर्त भी हैं किन्तु व्यापक नहीं हैं । यदि जीव द्रव्यसे व्यभिचार न हो इसलिए जीपको भी पझकोटीमें लाकर व्यापक सिद्ध करोगे, यह तो ठीक नहीं है । क्योंकि शब्द और आत्मारूप पक्षमें व्यापकपना मानना प्रत्यक्ष और अनुमान आदिसे विरुद्ध है, कर्णेन्द्रियसे होनेवाला प्रत्यक्ष शब्दको नियत देशमें स्थितिको ही सुनता है और स्वसंवेदन प्रत्यक्ष आत्माको अपने अपने शरीरके लम्बाई, चौडाई और मोटाईके अनुसार परिमाणवाला जानता है । कोई भी प्रत्यक्ष या अनुमान और आगम इन शब्द और आत्माको व्यापक नहीं जानते हैं। अतः अग्निको ठण्डापन सिद्ध करनेमें जैसे द्रव्यत्व हेतु बाधित हेत्वाभास है । उसी
SR No.090495
Book TitleTattvarthshlokavartikalankar Part 1
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherVardhaman Parshwanath Shastri
Publication Year1949
Total Pages642
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size19 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy