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________________ तत्त्वार्थचिन्तामणिः अपोलोकके प्रदेश न्यारे हैं, तथाच आकाशमें भी प्रदेशोंकी अपेक्षासे अनेकपना सिद्ध ही है । इस प्रकार हेतु और साध्य दोनोंके विद्यमान होनेपर व्यभिचार दोष नहीं आता है किन्तु हेतु पुष्प ही होता है। यदि मीमांसकोंका यह कहना होय कि आकाश आदिके अनेक प्रदेश माननेसे तो आकाश आदिके एकद्रव्यपनेका विरोध हो जायगा, वह भी ठीक नहीं है क्योंकि एक हाथ भूमिमें रखे हुए घटपटाविकोंको मी आप मीमांसकोंने एकद्रव्यपना माना है, यही बात प्रामाणिक प्रतीतिओंसे सिद्ध है । जो एक ही प्रदेशमें रहता है, वह ही एक द्रव्य है ऐसी कोई व्याति सिद्ध नहीं है जिससे कि परमाणुकोही एकद्रव्यपना सिद्ध हो सके, और यह भी व्याप्ति नहीं है कि जो जो अनेक प्रदेशों में रहते हैं, वे ही एक द्रव्य है जिससे कि घट, पट, आदिकको ही एकद्रव्यपना व्यवस्थित होता. दमाः नियम पाटनमें काल पामाण, और पुद्गल परमाणुको द्रव्यपना सिद्ध न होसकेगा, तथा अनेकदेशोंमें रहनेवाले ग्राम, नगर, मेला आदिको भी एक द्रव्यपनेका अतिप्रसंग होजावेगा। मीमांसक लोग घरोंके अत्यंत निकट संयोगको ग्राम कहते हैं और इसी प्रकार नगर, मेला, सेना, आदिको भी संयोगरूप गुणपदार्थ मानते हैं, अतः एक द्रव्यपनेके पूर्वोक्त दोनो लक्षण ठीक नहीं है, एक द्रव्यपने का सिद्धान्तलक्षण यह है कि चाहे एक प्रदेशमें रहनेवाला पदार्थ हो और भले ही अनेक देशोमें स्खिप्त हो, यदि उसका द्रव्यपनेरूप अखण्ड सम्बन्धको लिये हुए परिणाम होगया है, उसको एकद्रव्य कह देते हैं, अनेक गुण या अनेक बन्ध योग पदार्थोकी कथञ्चित्तादात्य संबन्धसे होनेवाली परिणतिसे उस एकद्रव्यपनेकी व्याप्ति देखी जाती है । जैनसिद्धांतमें कर्म नोकर्मसे बंधको प्राप्त संसारी जीवको तथा सजातीय पुद्गलोंसे बंधे हुए अनेकदेशी घटपटादकोंको भी अशुद्ध द्रव्य माना है । संपूर्ण जनतामें भी यह बात प्रसिद्ध है कि अनेकदन्यपनेरूप विष्यम्भावपनेसे परिणत भिन्न भिन्न देवदत्त, जिनदत्त, सूर्य, चन्द्रमा आदिको जैसे नानाद्रव्यपना है, उसी प्रकार खण्डित एकप्रदेशमें रहनेवाले या अखण्डित अनेक देशोंमें रहनेवाले अविष्वग्भाव सम्बन्ध रूप एकत्वपरिणतिसे युक्त परमाणु, कालाणु, आत्मा, आकाश, घट, पर्वत, आदि प्रत्येक द्रव्यको भी एकद्रव्यता प्रसिद्ध हो रही है । स्यादेतबाधकामावे सतीति हेतुविशेषणमसिद्ध गौरित्यादिशब्दस्य सर्वगतस्य युगपबञ्जकस्य देशभेदाद्भिनदेशतयोपलभ्यमानस्य स्वतो देशविच्छिन्नतयोपलम्भासम्भवादिति, तदयुक्तम् । तस्य सर्वगतत्वासिद्धेः कूदस्थत्वेनाभिव्यंग्यत्वप्रतिषेधाच्च । मीमांसकोंका इस पकरणपर यह कहना सम्भव है कि जैनोंका अनेकत्वको सिद्ध करनेवाला पूर्णोक्त अनुमान घरपट आदि पदार्थों में तो ठीक है किन्तु गोशब्दरूप पक्षमें हेतुका बाधकामावके होते संते यह विशेषण नहीं दीखता है किन्तु गो, घट, आदि शब्द सर्व स्थानों में व्यापक हैं। उन शब्दोंको
SR No.090495
Book TitleTattvarthshlokavartikalankar Part 1
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherVardhaman Parshwanath Shastri
Publication Year1949
Total Pages642
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size19 MB
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