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________________ साविलागिः रजोगुण और तमोगुणकी साम्य अवस्थारूप प्रकृतिकी जिज्ञासा होनेपर सूत्र बनाया गया है । इन तीनोंके मंतव्योंको हृदयम रखकर आशंका करनेवाले शंकाकारके प्रति आचार्य उत्तर देते हैं। नाप्यसत्यां बुभुत्सायामात्मनोऽचेतनात्मनः। खस्येव मुक्तिमार्गोपदेशायोग्यत्वनिश्चयात् ॥ ५॥ किसीकी नहीं जाननेकी इच्छा होनेपर यह सूत्र प्रवृत्त नहीं हुआ है और न चेतनारहित जडस्वरूप आत्माकी इच्छा होनेपर यह सूत्र प्रवर्तित हुआ है, तथा प्रधानकी भी इच्छासे सूत्रका बनाना नहीं हो सकता है क्योंकि नैसे सर्वज्ञदेव इच्छारहित अचेतन आकाशको उपदेश नहीं देते हैं, उसी प्रकार उक्त तीनों प्रकाराम भी मोक्षमार्गके उपदेश प्राप्त करनेकी आयोग्यताका निश्चय है। नैव विनेयजनस्य संसारदुःखामिभृतस्य बुभुत्सायामप्यसत्यां श्रेयोमार्गे परमंकारुणिकस्य करुणामात्रात्तत्प्रकाशकं वचनं प्रवृत्तिमदिति युक्तं, तस्योपदेशायोग्यत्वनिर्णीतेः । संसारके दुःखोंसे सताये गये शिष्यजनोंकी मोक्षमार्गविषयमें जाननेकी इच्छा न होनेपर इत्कृष्ट करुणाके धारी भी भगवान्का केवल करुणासे ही मोक्षमार्गके प्रकाश करनेवाला वचन प्रवर्तित हो गया है, यह उचित नहीं है, क्योंकि " महिष्यग्रे वीणावादनवत् " जाननेकी इच्छाके विना कोई भी पुरुष सद्वक्ताके उपदेशग्रहणके योग्य नहीं है, ऐसा निर्णय हो रहा है। नहि तत्प्रतिपित्सारहितस्तदुपदेशाय योग्यो नामातिप्रसंगात्, तदुपदेशकस्य च कारुणिकत्वायोगात् । ज्ञात्वा हि बुभुत्सां परेषामनुग्रहे प्रवर्त्तमानः कारुणिकः स्यात् ।। कचिदप्रतिपित्सावति परप्रतिपित्सावति वा तस्प्रतिपादनाय प्रयतमानस्तु न स्वस्थः । जो श्रोता तत्त्वज्ञानको समझनेकी अभिलाषा नहीं रखता है, वह उपदेशके लिये सर्वथा योग्य नहीं है । यदि बिना इच्छाके ही आचार्य उपदेश देते फिरें तो उनको कीट, पतङ्ग, पशु, पक्षी, सुप्त, उन्मत्त पुरुषोंके लिये भी उच्च सिद्धान्तका उपदेश दे देना चाहिये, यह अति प्रसङ्ग हो जायगा। जो पात्रका विचार न करके कोरी दयासे उपदेश दे देते हैं, उन उपदेशकोंको काणायुक्त नहीं कहना चाहिये, अर्थात् अविचारितपनेसे की गयी दया कहीं कहीं हिंसासे बढकर है, वस्तुतः वह दया ही नहीं है दयाभास हैं । जैसे कि अभिसे भुरसे हुए के ऊपर ठण्डा पानी डाल देना या आतुर रोगीको अपथ्य दही, ककडी, आदि दे देना, उसही प्रकार अनाकांक्षा होनेपर भी उपदेश देनेवाला भी दयावान् नहीं है । अन्धे कुएर्भ आहार या रुपया डालनेसे कोई दानी नहीं हो सकता है । दूसरोकी तत्त्वग्रहण करनेकी इच्छाको समझकर ही परोपकारमें प्रवृत्ति करनेवालेको दयावान्
SR No.090495
Book TitleTattvarthshlokavartikalankar Part 1
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherVardhaman Parshwanath Shastri
Publication Year1949
Total Pages642
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size19 MB
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