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________________ २३६ सत्यार्थचिन्तामणिः तथा सति तेषां परस्परमनन्तविस्तदन्तर्भावो वा स्यात् १ प्रथमपक्षे चैतन्य स्थापि भूतेष्वन्तर्भावाभवात् तत्त्वान्तरस्वसिद्धिः। द्वितीयपक्षे तत्त्वमेकं प्रसिद्धयेत्, पृथिव्यादेः सर्वस्य तत्रैवानुप्रवेशनात, तच्चायुक्त क्रियाकारकघातित्वात् ।। यदि पृथ्वी आदिकोंका आप परस्परमें उपादान उपादेय भाव इष्ट कर लोगे तो तैसा होनेपर हम जैन आपसे पूंछते हैं कि उन पृथ्वी आदि तत्वोंको पृथक् पृथक् मानते हुए परस्परमें अंतर्भाव न करोगे अथवा एकका दूसरे में अंतर्भाव कर लोगे ? बनाओ। यदि आप चार्वाक प्रथम पक्ष लोगे तब तो पृथ्वी में जल आदिकका गर्भ न होनेके समान चैतन्यका भी भूतों में अंतर्भाव न होगा। एवं च भूतोंसे अतिरिक्त चैतन्य भिन्न तत्व सिद्ध होता है। यदि आप दूसरा पक्ष लेगे अर्थात् एकका दूसरेमें गर्भ कर लोगे तो चैतन्य भले ही भूतमे अन्त:प्रविष्ट हो जाय किंतु साथमैं पृथ्वी आदिक चारों तत्व भी एक तत्व हो आवेगे सभी पृथ्वी आदिक चारोंका एक ही प्रवेश हो जायेगा। यदि शाप दूसरे के भाकुन नाले हि "तिकाछेद । न्यायसे चैतन्य भिन्न तत्व सिद्ध न हो जाये, इस लिये पृथिवी, जल, आदिकों को भी एक ही तत्व स्वीकार कर लोगे तो यह भी मानना युक्तियोंसे शून्य है। क्योंकि ऐसा माननेसे क्रियाकारकभाव नष्ट हो जाता है। अझावतवादियों की तरह सब पदायाँको एक ब्रह्मतत्व अंतर्भाव करनेसे क्रिया, फर्ता, कर्म नहीं हो सकते हैं। क्या वही एक आप ही अपनेसे स्वयं बन जाता है। नहीं, इस प्रकार एक तत्व के माननेसे चार्वाकको अपसिद्धांत भी होगा। परिशेषमें आत्माको ही चैतन्यका उपादानकारण माननेपर बैन मिल सकता है। " तस्माद्रव्यान्तरापोढस्वभावान्वयि कथ्यताम् । उपादानं विकार्यस्य तत्त्वभेदोऽन्यथा कुतः ॥ १२० ॥ तिस कारण उपादानकारण माननेका यह नियम करना चाहिये कि जो स्वपर्यायवाले प्रकृत दृष्यस अतिरिक्त दूसरे द्रव्योंसे व्यावृत्त स्वभाववाला है और यह वही द्रव्य है । इस प्रकार अन्वयज्ञानका जो विषय है वही विकारको प्राप्त हुये उस कार्यका उपादानकारण है। यदि ऐसा न मानकर अन्यपकारसे मानोगे सो पृथिवी, जल आदि तत्वोंका भी भेद कैसे होगा। बताओ को सही । बगले क्यों झांकते हैं । सिद्धांत यह है कि जैसे क्षुद गंगानदीकी धारा गंगोतरी पर्वतसे लेकर कलकत्ता पर्यंत बह रही है । हरिद्वार, कानार, बनारस, पटना आदिमें भिन्नदेशवाली पर्यायोंको धारण करनेवाली वही एक गंगा है। इसी प्रकार अनादि कालसे अनंत काल
SR No.090495
Book TitleTattvarthshlokavartikalankar Part 1
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherVardhaman Parshwanath Shastri
Publication Year1949
Total Pages642
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size19 MB
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