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________________ तस्वार्थचिन्तामणिः अतः उन हरमात्रों में ही भेद सम्मत्रता है । आत्मा तो कूटस्थ नित्य एक है। उनका यह कहना भी युक्तिशून्य है। क्योंकिभेदका लक्षण विरुद्ध धर्मोसे आक्रांत हो जाना ही है, ऐसा न मानकर यदि अन्यथा मानोगे यानी अधिकरणसे अधिकरणपन स्वभावको न्यारा मान लिया जायेगा तब सो आस्मा और अनाला भेद न होनेका प्रसंग हो जावेगा । कर्थात् आत्मामें ज्ञान, सुख आदिकी आदिकी अधिकरणता है । तभी तो जब और चेतनका भेद मी उठ जायेगा । अतः आरमा ५७८ करता है और जड पृथ्वी आदिमें रूप रस चेतन भेद माना जाता है । ऐसा माने विना जड, मी मित्र समावाला होकर अनित्य है । असत्यात्मकतासत्वे सत्त्वे सत्यात्मतात्मनः । सिद्धं सदसदात्मत्वमन्यथा वस्तुताक्षतिः ॥ १२३ ॥ यात | नहीं विद्यमान किंतु गौणरूपसे आरोपित किये गये असत् स्वरूप धर्मोकी अपेक्षासे आत्माको असत् मानोगे और सर्वदा विद्यमान रहनेवाले सत्य स्वरूप स्वभावकी अपेक्षा से आत्माको सर्वदा सत् मानोगे तब तो आत्माको सत् और असत्स्वरूपपना सिद्ध हो जाता है । अन्यथा आत्माको वस्तुपनेषी ही क्षति हो जायेगी । भावार्थ-सत् असत् धर्मात्मक वस्तु होती है । स्वतुष्टयकी अपेक्षासे पदार्थ सत् है और परचतुष्टय की अपेक्षा असत् है । अन्यथा खरविषाणके समान 'शून्यपने या साकये दो जानेका प्रसंग होगा । I नानाधर्माश्रयत्वं गौणमसदेव मुख्यं स्थायि तु खदिति वच्चतो जीवस्यैकरूपत्वमयुक्तं सदसत्स्वभावत्वाभ्यामनेकरूपत्वसिद्धेः । यदि पुनरात्मनो मुख्यस्वभावेनेवोपचरितस्वभावेनापि समु क्रियते तदा तस्याशेपपररूपेण सच्चप्रसक्तेरात्मत्वेनैव न्यवस्थानुपपत्तिः सत्तामात्रवत्सकलार्थं स्वभावत्वात् । तस्योपचरितस्वभावेनैव मुख्यस्वभावेनाप्यसन्धे कथमवस्तुत्वं न स्यात् । सकलस्वभावशून्यत्वात् खरगवत् । आत्मार्गे नाना धर्मो का आश्रयपना गौण आरोपित धर्म है। अतः असत् ही है तथा आत्मव आदि मुख्यधर्म तो सर्वेदा टिकाऊ हैं। अतः सत्स्वरूप है। वास्तवमे विचारा जावे तो जीव अपने स्थायी एक सत् रूप ही है, असत् अंश उसमे सर्वथा नहीं है । अतः असतुरूपजीव किञ्चित् भी नहीं है । यह किसी नैयायिकका कहना अयुक्त है। क्योंकि सत् और असत् दोनों स्वभाव होनते जीव अनेक धर्मस्वरूप सिद्ध हो चुका है। यदि जीवको सर्व प्रकारसे सद्रूप ही माना जायेगा तो मुख्य स्त्रभावोंसे जैसे जीव का सद्रूपपना है, वैसे ही गौण कल्पित स्वमानों करके भी सत् रूपपना स्वीकार किया जावेगा, तब तो उस जीवको सम्पूर्ण जडपना, रसवान्पना, गंधवानूपना आदि दूसरोंके स्वभाव करके मी सदरूपपनेका प्रसंग जावेगा । अतः वह जीव उन जड, पृथ्वी,
SR No.090495
Book TitleTattvarthshlokavartikalankar Part 1
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherVardhaman Parshwanath Shastri
Publication Year1949
Total Pages642
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size19 MB
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