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________________ सवार्थचिन्तामणिः ५७९ आकाश, स्वरूप बन जायेगा । तथा च पृथ्वीपने आदिको टालकर जीवकी आत्मपने करके ही. व्यवस्था होना न बन सकेगी। सब जड़ और चेतन पदार्थों का सांकर्य हो जायेगा। केवल ( शुद्ध ) सताके समान सम्पूर्ण पदार्थ सभी पदार्थों के स्वभाववाले हो जायेंगे ! यह बड़ी भारी अव्यवस्था होगी । माद्वैत छा जावेगा । पातित्रत्य, अचौर्य धर्म नष्ट हो जायेंगे । बच्चा अपनी माकी गोदको प्राप्त न कर सकेगा । चोर, ढांकू, व्यभिचारियोंको दण्ड न मिल सकेगा | अधिक कहने से क्या काम है । उक्त दोष परिहारके लिये आप नैयायियोंको परिशेषमें यही मानना पड़ेगा कि अपने स्वभावों करके पदार्थ सद्रूप हैं और अन्य के स्वभावोंकरके वस्तु असतूरूप है । तथा आप नैयायिक यदि उपचरित स्वभाव करके वस्तु जैसे असत्रूप है, वैसे ही मुख्य अपने स्वभावोंकर के भी उसको असतूरूप मानोगे तो उसको अवस्तुपना क्यों नहीं होगा ! क्योंकि परकीय स्वमासे शून्य तो वस्तु थी दी और अब आपने स्वकीय मुख्य स्वभावोंसे भी रहित मान लिया है। ऐसी दशा में सम्पूर्ण स्वभावसे शून्य होजानेके कारण गधे के सींग समान वह अवस्तु, असतूरूप, शून्य पयों नहीं हो जावेगी ! आप कुछ न कह सकेंगे, न कर सकेंगे । " ये खाहुः उपचरिता एवात्मनः स्वभावभेदा न पुनर्वास्तवास्तेषां ततो भेदे तत्स्वभावानुपपतेः । अर्थान्तरस्वभावत्वेन सम्बन्धात्तत्स्वभावत्वेप्येकेन स्वभावेन तेन तस्य तैः सम्बन्धे सर्वेषामेकरूपतापत्तिः, नानास्वभावैः सम्बन्धेऽनवस्थानं तेषामध्यन्यैः स्वभावैः सम्बन्धात् । यहां जो निश्व आत्मवादी ऐसा लम्बा चौड़ा कथन करते हैं कि आत्माके मिन मिन वे अनेक स्वभाव कल्पना किये गये ही हैं। वास्तविक नहीं है । क्योंकि उन अनेक स्वभावको उस एक आत्मासे भेद माननेपर उनमें उस आत्माका स्वभावपना नहीं सिद्ध होता है । जैसे कि ज्ञानसे सर्वथा भिन्न माने गये गंध, रूप व्यादि गुण ज्ञानके स्वभाव नहीं होते हैं। यदि आप जैन आत्मा के उन भिन्न स्वभावका अन्य मिन मापने कर के संबंध होजानेसे आत्माके उनको स्वभावपना मानोगे तो हम नैयायिक कहते हैं कि एक उस स्वभाव करके आत्माका उन स्वमानोंके साथ संबंध माना जावेगा, तब तो उन सर्व ही स्वभावको एक होजाने का प्रसंग होगा। हाथके जिस प्रयत्नसे एक अंगुली नमें उसी प्रयत्नसे दूसरी अंगुली नम जाय तो समझ लो कि वे अंगुली दो नहीं, किंतु एक ही है। यदि वे अंगुली दो हो तो निश्चय है कि दूसरा प्रयत्न कार्यको कर रहा है, एक नहीं । पेडा, गुड, चना, सुपारीको क्रमसे खानेपर यदि जबडेका उतना ही पुरुषार्थ लगा है तो समझ लो कि आपने एक ही चीज खाई है चार नहीं । और भिन्न भिन्न नाना स्वभावसे यदि उन भिन्न स्वभावों के साथ आत्माका संगन्य माना जावेगा तो अनवस्था दोष होगा। क्योंकि उन स्वमायके साथ संबन्ध करने के लिये मी पुनः
SR No.090495
Book TitleTattvarthshlokavartikalankar Part 1
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherVardhaman Parshwanath Shastri
Publication Year1949
Total Pages642
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size19 MB
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